SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देव तथा असुर विषुवत् में सूर्य को क्षितिज श्लोक- सर्व त्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरिस्थितम् । में देखते हैं । इस प्रकार बाये-दायें से मन्यन्ते क्षेत्रतो गोलस्तस्य दिन-रात होते रहते है । क्वोर्ध्व क वाप्यधः ।। ० उत्तर मेरु के निवासियों के पक्ष में मेषादि अल्पकायतया लोकाः में सूर्य होने पर सूर्योदय होता है, तभी स्वात्स्थानात्सर्वतो मुखम् । मेरु में रहनेवाले देवोंके दिन का पूर्वाध पश्यन्ति वृत्तामप्येतां होता है । चक्राकारां वसुन्धराम् ॥ ५३-५४ कर्कादि राशि में होने से अपराहूण होता इस विवरण से स्पष्ट है कि पृथ्वी वस्तुतः है । तथैव तुलादि और मकरादि में असुरों वृत्त (गेन्द सी गोल) है परन्तु चक्राकार दिखाई की पूर्व-पराध दिवा है । (१२/४८-४९) देती है । वह तथ्य भी आज के शोध से ० इसमें स्पष्ट है कि जब देव-क्षेत्रमें दिन सिद्ध है । होता है, तो असुर क्षेत्र में रात्रि परस्पर विप . पृथ्वी देवताओंके निकट सव्यादि में, रीत । दोपहर और आधीरात याम्योत्तर अय- असरों के निकट अपसव्यादि में और निरक्ष नान्त में होती है । . मनुष्यों के निकट ऊपर से पश्चिम दिशामें , सुर तथा असुर अपने अपने स्थानको भ्रमण करती है। ऊपर समझते हैं श्लोक- सव्य भ्रमति देवानाश्लोक- दिनक्षपार्ध मेतेषामयनान्ते विपर्ययात् । ___ मपसव्य सुरद्धिषाम् । . उपर्यात्मानमन्योन्य . उथारिष्टात् भगोलोय कल्पयन्ति सुरासुराः ॥ ५१ व्यक्षेपश्यान्मुखः सदा ॥ १२/५५ आज यह स्पष्ट है कि अमेरिका और ० स्पष्ट ही पृथ्वी के अपनी धुरी पर. भारत में दिवा-रात्रि का अन्तर है। घुमने की बात कही गई है । निरक्ष देश में ० समसूत्रवाले एक-दूसरे को नीचे समझते दिन-रात बराबर होते हैं। सुरासुर-विभाग है । जैसे भद्राश्व और केतुमाल अथवा लंका में विपरीत रूप से हानि-वृद्धि होती रहती है। सिद्धपुरवासी । ० सूर्य मण्डल विशाल होता है और चन्द्र.... पृथ्वी के गोल होने से सर्वत्र अपने मण्डल स्वल्प (२/९) । वैसे दोनों दिशा में अपने स्थानको उपरिस्थ समझते हैं । शून्य दिन-रात को अवधि घटती बढती रहती है। मध्यस्थित गोल में ऊंचा और नीचा क्या है ? और विपरीत भाव से (देवासुर विभाग में) ० लघुकाय होने से लोग चारों और इस पृथ्वी भी घूमती रहती है । जिस स्थान पर पृथ्वी को चक्र के समान गोलाकार रुप से पृथ्वी की छाया नहीं है, वहाँ सूर्य के दर्शन देखते हैं । होते हैं .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy