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ब्रह्माण्ड में परिघ को व्योमकक्ष कहते . मेरु के चारों ओर परिघि बने हैं । इसमें नक्षत्र विचरते हैं। समुद्रों में तुल्य दूरी पर द्वीपों पर देवनिमित्त
उससे क्रमशः नीचे ये ग्रह है- चार नगरियां हैं। शनि, गुरु, सूर्य, शुक्र, बुध तथा चन्द्र
भूवृत्त के चतुर्थाश से पूर्व के भद्राश्व इनसे नीचे क्रमशः सिद्ध, विद्याधर तथा
वर्ष में यम कोटिपुरी है, जहां सुवर्ण के मेघ हैं।
प्राचीर और तोरण है। ___ब्रह्मा की धारणात्मिक शक्ति के कारण
. दक्षिण के भारतवर्ष में भी वैसी ही अण्ड के सर्व प्रदेश के मध्यदेश में, व्योम ल का महापुरी . है । के मध्य भूगोल अथवा पृथ्वी स्थित है। पश्चिम के केतुमाल में रोमक नगरी मध्ये समन्तादण्डस्य
और उत्तर के कुरुवर्ष में सिद्धपुरी है । - भूगोलः ज्योम्नितिष्ठति । जहां सिद्ध-महात्मा सुख से रहते हैं। बिभ्राणः परमां शक्ति
___० भूवृत्त के चतुर्थाश में परस्पर बराबर . ब्रह्मणो धारणात्मिकान् ॥ १२/३२ दूरी पर स्थित है। . इससे स्पष्ट है कि सम्पूर्ण अण्ड के इनसे उत्तर में देवावास मेरु है। मध्य, शून्य आकाश में ब्रह्म की धारणत्मिक विषुवद्-स्थित सूर्य उनसे उपर से शक्ति से (न कि किचुम्बकीय आकर्षण शक्ति से) जाते हैं । अतः वहां न विषुवत् छाया है पृथ्वी अवस्थित है।
और न अक्षोन्नति ।। , यह तथ्य आज के विज्ञान से भी पुष्ट . दोनों मेरु के मध्य आकाशमें, दक्षिण हो चुका है।
और उत्तर में दो ध्रव स्थित हैं । - भूगोल के अनन्तर नाग-असुर-सम्पन्न , निरक्ष देश में स्थित होने से होने से सात पाताल भूमियां हैं। दिव्यौषधि और दोनों क्षितिज रेखा में स्थित हैं । रस विद्यमान है। ... .... दोनों ध्रुव क्षितिज गोल में स्थित होने,
. अनेक रत्न तथा जम्बूनद से सम्पन्न से वहाँ के लम्बकांश ९० और मेरु के अक्षांश मेरु पृथ्वी के मध्य में दोनों ओर तक भी ९० हैं। व्याप्त है। .......... . मेषादि देवविभाग में स्थित होने पर
मेरु से उत्तर में देवता तथा ऋणि एवं देवताओंको दृश्य होता है और तुलादि असुर दक्षिण में असुर निवास करते हैं। विभाग में स्थित हो तो असुरोंको दृश्य -: मेखला के समान घेरा बनाकर समुद्रने होता है। देव, तथा. असुर की भूमि का विभाग कर . देवभाग में सूर्यकिरणे देवपक्ष में तीत्र दिया । । .................. रहती हैं और हेमन्त में मन्द हो जाती है ।
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