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. वासुदेव के अंश संकर्षण प्रकृति के करते रहते हैं । जैसा कि कहा गया है कि
भीतर तथा बाहर व्याप्त हैं । श्लोक- रथे विश्वमये चक्र .. ० जब केवल जल था उसमें उन्होंने कृत्वा संवत्सरात्मकम् ।
वीय निक्षेप किया जो तमसावृत वाता. छदास्यश्वाः सप्तयुक्ताः वरण में हैम अण्ड बन गया ।
___ पर्यटत्येष सर्वदा ॥ १२/१९ ० जिसमें प्रथम सनातन अनिरुद्ध व्यक्त ० इसके त्रिपाद गुह्य हैं । चतुर्थ पाद में
हुए । वेद में इन्हें हिरण्यगर्भ कहते ही प्रगट जगत् है। हैं, आदि में होने से आदित्य और . उस प्रभाने अहंकार रुप ब्रह्मा को इनसे संसार प्रसूत होने से ये सूर्य संसार की सृष्टि के लिये उत्पन्न किया । कहलाये ।
० ब्रह्मा को वेद देकर, सर्व लोक के पिताश्लोक- हिरण्यगर्भो भगवानेवच्छन्दसि पठयते ।।
मह रुप से अंड में स्थापित कर स्वयं
... प्रकाशित हो भ्रमण करते हैं। आदित्यो हयादिभूतत्वात् प्रस्त्या सूर्य उदयते ॥ (१२/१५) ० अहंकारी ब्रह्मा ने सृष्टि के विचार से
मन से चन्द्रमा और नेत्रों के तेज से . तात्पर्य यह कि अनिरुद्ध ही ज्योतिर्मय .. सविता है, जो अंधकार को लांधकर समस्त
तेजोनिधान सूर्य को उत्पन्न किया । भुवनों में घुमते हैं
० मन से आकाश, उससे वायु, अग्नि, श्लोक-पर ज्योतिस्तमः परि
जल और धरा अपने अपने गुणों
सहित उत्पन्न हुए। सूर्योऽयं सवितेति च । पर्येति भुवनान्येव
० अग्नि, सोम, सूर्य, चन्द्र, मगलादि
ग्रह, तेज, पृथ्वी आकाश, जल, वायु भावयन्भूतभावनः ॥ १२/१६ . यहां स्पष्ट कह दिया है कि भ्रमण सूर्य
इत्यादि उत्पन्न हुवे । । ही करता है।
. फिर १२ राशि और २७ नक्षत्रों की • सूर्य प्रकाशरुप, तमोनाशी और महान है ।
कल्पना की तब उत्तम मध्यम तथा अधर्म
रुप देव मानवादि की सृष्टि की । ये सब . ऋग्वेद इसका मडल है, साम इसकी गुणकर्म के अनुरुप थे।
किरण इ तथा यजुव द इसका मूति है। . ग्रह, नक्षत्र, तारा, भूमि, विश्व, देव • त्रिवेदात्मक सूर्य, कालात्मा, कालकर्ता, असुर, मनुष्य तथा सिद्धों को अपने अपने
सर्वात्मा विभु, सर्वग, सूक्ष्म और सब स्थान पर नियुक्त किया । इनमें प्रतिष्ठित है।
"ब्रह्माण्ड रिक्त है जहां भू, भुव इस्यादि संवत्सर के चक्रवाले विश्वमय रथ में हैं । दो कड़ाही के मुख मिलाने पर बनी छंदों के अश्व जोतकर सूर्य सदा भ्रमण आकृति के समान इसकी आकृति है। .:.'
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