________________
(घ) आ० विनयविजयगणिकृत-लोक- उत्पन्न हो जाना, ८ प्रलयकाल (अवसर्पिणी प्रकाश' ग्रन्थ में, १ तथा उत्तर पुराण, २ के अंतकाल में) ग्राम-नगरादि को नाश, ९ पद्मपुराण, ३ तिलोयपण्णत्ति, ४ चन्द्रप्रभचरित ५ गंगा ब सिन्धु नदियों को छोड कर सभी आदि ग्रन्थों में स्पष्टतः क्षेत्र को ही हामि- नदियों की समाप्ति, १० गंगा-सिन्धु नदियों वृद्धिगत निरुपित किया गया है।
का विस्तार रथ या बैलगाडी जितना संकु(ड) अगर क्षेत्रीय-परिवर्तन स्वीकार न चित होना, ११ तीर्थकर के केवल ज्ञानकिया जाए तो भोगभूमिकाल के अंत में, लाभ के समय तीनों लोकों में प्रक्षोभ होना, १२ चौदहवें कुलकर नाभिराय के समय कल्प- तथा उत्सर्पिणी के प्रारम्भ में पुनः नगरादिकों, वृक्षों का नष्ट होना, ६ उन्हीं के समय बिना पर्वतों, नदियों आदि का पुनः निर्माण हो बोये धान्य पैदा होना, ७ बारहवें कुलकर के जाना १३ आदि परिवर्तनों की संगति कैसे समय अदृष्टपूर्व कुनदियों व कुपर्वतों का हो सकेगी ? । १. नानावस्थ कालचक्रैर्भारत क्षेत्रमीरितम् (च) अनुयोगद्वार-सूत्र में उल्कापात, ( लोकप्रकाश-१६/१); तथा वहीं
ही चन्द्र ग्रहण, इन्द्र-धनुष, एवं ग्राम, नगर भवन १९/१०१-१०३
आदि की श्रेणि में ही भरत आदि क्षेत्रों, २. ऐरावत सम वृद्धिहानिभ्यां परिवत'नात् ८. कुनद्य : कुपर्वताश्चोत्पद्यन्ते (त. सु. (उत्तर पुराण-६२/१९)।
श्रुतसा. वृत्ति), कद्दमपवहणदीओ अदि. ३. षष्ठकालक्षये सर्व क्षीयते भारतजगत् ।
ट्ठपुवाओ (तिलोय प. ४/४८५)। . घराधरा विशीयन्ते मयंकाये तु को
९. पव्वयगिरिडोंगरुत्थलभदिमादीए य वेयकथा (पद्म-पुराण-जैन, ११७/२६)॥ गिरिवज्जे विरावेहिंति (भगवती सु. ४. अवसेसवण्णणाओ सुसमस्स व होति
७/६/३१), जंबूदीव प. (श्वेता.)२/३६, तस्स खेत्तस्स । णवरि य संठितरब परिहीण' हाणिवडूढीहि (तिलोयप- १०. सलिलविलगदुग्गविसमणिण्णुण्णताइं गंगा
सिंधुवज्जाइ सभीकरहिंति (भगवती सु. ४/१७४४) ॥ - ५. भरतैरावते वृद्धि हासिनौं कालभेदतः
७/६/३१), जबूदीव प. श्वेता.)२/३६, (चन्द्रप्रभचरित, १८/३५) ।
११. गंगासिंधूओ महानदीओ रहपहवित्था६. कल्पवृक्षविनाशे क्षुधितानां युगलानां राओ (भगवती सू. ७/६/३४) ।
सस्यादिभक्षणोपाय दर्शयति (त. सु. १२. तिलोय ०. ३/७०६ । ३/२७ पर श्रुतसा. वृत्ति), तथा तिलो- १३. भरहे वासे भविस्सइ परुढरुक्खगुच्छयप०-४/४९७,
गुम्मलयवल्लितण-पव्वयगहरियगओसहिए, ७. अकृष्टपच्यानि सस्यादीनि चोत्पद्यन्ते उवचियतयपत्तवालं कुरपुष्फफलसमुइए सुहो
(त. सू. ३/२७ पर श्रुतसागरीय वृत्ति), वभोगे यावि भविस्सइ (जंबूदीव ०.तथा तिलोय०. ४/४९७
श्वेता. २/३८) ।
HEHEHHHI
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org