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हिमवत् आदि पर्वतों तथा रत्नप्रभा आदि बदल जाते हैं, इसके बावजूद, सामान्य दृष्टि पृथ्वीयों को सादि-पारिणामिक बताया गया में यह संस्थान ज्यों का त्यों अपरिवर्तित है १ यहां टीकाकार पू० आ० घासीलाल जी कहा जाता हैं । संभवतः इसी दृष्टि से जम्बूमहाराजने शंका उठाई है कि वर्ष धर पर्व- द्वीपादि को शाश्वत व अशाश्वत-दोनों कहा तादि तो शाश्वत हैं, फिर वे सादिपारिणामिक गया है । ३ कैसे ? इस शंका का समाधान करते हुए . (छ) सर्वार्थ सिद्धिकार व राजवार्तिककार वे कहते है कि वर्ष धरादि में जो शाश्वतपना द्वारा भरतादिक्षेत्रगत परिवर्तन के निषेध है, वह उनका 'अपना आकार न छोडना ही कर दिये जाने का तात्पर्य इतना ही है कि है । शाश्वतपना होने से उनमें परिणमन होने पृथ्वी एक शाश्वत इकाई है-यह न कमी का निषेध नही समझना चाहिए । २ बनेगी और न नष्ट होगी । ४ जैसे, किसी
प्रत्येक भौतिक संरचना में संघटन- एक घर में अनेकानेक प्राणियों के मस्ते विघटन की प्रक्रिया प्राकृतिक-नियमों के जन्मते हुए भी घर ज्यों का त्यों रहता है। अनुरूप होती रहती है। विघटन-पर्याय को
उस घर में समय-समय परिवर्तन (मरम्मत,
परिष्कार आदि) भी हुए हैं, पर वह घर प्राप्त परमाणु प्रतिसमय (जघन्यकाल) दूर होते रह सकते हैं और संघटन-पर्याययोग्य
जितनी जमीन घेरे था, उतनी ही जगह पर दूसरे असंख्य परमाणु उनमें संयुक्त हो
है, घटा-बढा नहीं हैं। इसलिए उस घर सकते हैं। एक सुदीर्घ अवधि के बाद, एक- को नष्ट नहीं मानते और नहीं उसे दूसरा एक करके उस संस्थान के सारे परमाण घर समझ बैठते हैं। उसी तरह, अनेक
- नगर ऐसे हैं जिनके नाम सदियों से चले १. साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते । तं आ रहे हैं । यद्यपि उन नगरों में अनेक
जहा....च दोवरागा सुरोवरागा...इंदधणू भौतिक-परिबर्तन हो गए हैं, किन्तु उन्हें ....वासधरा गामा णगरा घरा पब्वया दसरे नगर के रुप में नहीं माना जाता । पायाला भवणा णिरया रयणप्पहा.... पथ्वी में भी यत्र-तत्र, कालक्रम से परिपरमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणत- वर्तन होते हुए भी परिमाण में वह ज्यों
पएसिए (अनुयोग द्वार सूत्र, १५६)। की त्यों है । दुसरी बात, पृथ्वी आदि में २. ननु वर्ष धरादयः शाश्वताः, न ते कदा- जो परिवर्तन होता हैं, वह उसके मूलरूप
चिदपि स्वकीय भाव मुञ्चन्ति, तत्कथं ३. जबूदीवे....सिय सासए सिय असासए पुनरेषां सादिपारिणामिकत्वमुक्तम् ? . (जंबूदीव प. श्वेता.-७/१७७), दव्यइति चेदाह-वर्ष धरादीनां शाश्वतत्व द्वियाए सासए, वण्णपज्जवेहि.....असातदाकारमात्रेणैव अवतिष्ठमानत्वात् बोध्यम् सए, (वहीं, तथा द्र. जीवाजीवाभि(अनुयोगद्वार सूत्र, सु. १५६ पर पू. गम सू. ३/२/७८)। श्री घासीलाल जी म. कृत टीका)। ४. उपयुक्त,
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