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उक्त शका का समाधान इस प्रकार है :- (ख) आचार्य विद्यानन्दि ने तत्त्वार्थ लोक
(१) पृथ्वी का मूल आकार-बाहरी वार्तिक (तत्त्वार्थ सूत्र-४/१३ पर) में कहा लम्बाई-चौडाई, परिधि आदि--पूर्णतः शाश्वत है कि यह पृथ्वी सर्वत्र दर्पणवत् समतल . है, यानी उसका नाश व वृद्धि सम्भव नहीं (चौरस-सपाट) नहीं है, क्योंकि जगह-जगह है। बाह्य परिमाण में उच्चावचता अवश्य पृथ्वी की उच्चावचता की प्रतीति प्रत्यक्ष हो सम्भव है । इस परिवर्तन से उसका मूल रही है । ५ सदा अपरिवर्तित रहता है।
जैन- मतानुसार काल-क्रम के साथ (२) अवसर्पिणी काल में भरत व ऐरावत प्रत्येक भौतिक-पदार्थ में वर्ण-रसादिगत क्षेत्र के अन्दर, जिस प्रकार क्षेत्रस्थ-मनुष्यों परिवर्तन स्वभावसिद्ध हैं । ६ . की ऊंचाई, आयु, सुख, विभूति आदि में
___ (ग) शाश्वत वस्तु में परिवर्तन होते क्रमशः हास होता है, उसी प्रकार, भरत- । ऐरावत क्षेत्रों में
. है, इसके समर्थन में भी (क्षेत्रीय) परिवर्तन
आ० आत्मारामजी होते हैं।
कृत 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' का कथन यहां ___ (क) तत्त्वार्थ सूत्र के (दिगम्बरपरम्परा
मननीय है-"शाश्वत वस्तु घटती-बढती सम्मत पाठ में उपलब्ध) 'ताभ्यामपरा भुम
नहीं, सो भी झूठ हैं । क्यों कि गंगा-सिन्धु योऽवस्थिताः' (त० सु० ३/२८) सूत्र से स्पष्ट
का प्रवाह, भरतखण्ड की भूमिका, गंगा-सिन्धु
की वेदिका, लवण-समुद्ग का जल वगैरह संकेत होता है कि भरत व ऐरावत क्षेत्र की . भूमियां अवस्थित (एक जैसी) नहीं रहती।
घटते-बढते रहते हैं।" ७ - आचार्य विद्यानन्दि ने तत्त्वाश्लोकवार्तिक । तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचन सफलताग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि तत्त्वार्थ सूत्र (भरते- .. मस्तु, ते प्रतीतिश्चानुल्ल पिता स्यात् रावतयोवृद्धि-हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्य- (त. सू. ३/१३ पर श्लोकवार्त्तिका वसर्पिणीभ्याम्-३/२७ दिगम्बर-पाठ) में खण्ड-५, पृ. ५७२)। सकेतित परिवर्तन भरतादिक्षेत्र से सम्बन्धित
५. न वय दर्पणसमतलामिव भूमि, भाषासमझने चाहिए । मनुष्यादिक की आयु आदि
महे, प्रतीतिविरोधात् । तस्याः कालामें परिवर्तन तो गौण ही है । ४
दिवशादुपचयापचयसिद्धेर्निम्नोन्नताकार४. तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरादिभिवृद्धि
सद्भावात् (त. सु. ४/१९ पर श्लोकहासौ प्रतिपादितौ, न भूमेः अपरपुद्ग- वार्त्तिक, खण्ड-५ पृ. ५६३) । लैरिति मुख्यस्य घटनात् , अन्यथा मुख्यशब्दार्थातिकमे प्रयोजनाभावात । १. अनुयोगद्वार सूत्र, ८६, स्थानांगतेन भरतैरावतयोः क्षेत्रयोवृद्धि हासौ मुख्यतः प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु २. सम्यक्त्व शल्योद्धार, पृ. ४५
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