________________
पश्चिम की ओर फैली जीवा की लम्बाई रत्नप्रभा पृथ्वी से ७९० योजन की
ऊंचाई पर ज्योतिष्क (तारा आदि ज्योतिष५७४८-१० योजन है । ५ .
चक्र) देवों की स्थिति है१०। रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नमय काण्ड के सहस्त्र जम्बूद्वीप में दो चन्द्र तथा दो सूर्य तथा योजन के पृथ्वीखण्ड में से एक सौ योजन
समस्त मनुष्य लोक में १३२-१३२ चन्द्र
सूय माने गए हैं११ ।। ऊपर, तथा एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मध्य के ८०० योजन प्रथ्वी (क)विज्ञान-प्रेमियोंकी ओर से कुछआपत्तियां पिण्ड में वाणव्यन्तर देव आदि रहते हैं। आजकल विज्ञान की चकाचौंध का युग वाणव्यन्तर देव इस पृथ्वी पर क्रीडा विनोद है । विज्ञान ने हमें अनेक भौतिक-सुविधाएँ हेतु विचरते रहते हैं । इसी प्रकार, पहली
के एक-एक हजार योजन क्षेत्र को पृथ्वी के प्रथम व दूसरे भाग में भवनवासी
छोड़कर मध्यवर्ती १४ हजार योजन देवो८ । तथा पिशाच आदि देवों की स्थिति
क्षेत्र में किन्नरादि सात व्यन्तर भी मानी गई है, जिसका विस्तृत निरूपण
देवों के तथा नागकुमारादि नौ आगमों में द्रष्टव्य हैं९।।
भवनवासियों के आवास हैं । ५. जम्बू० प. (श्वेताः) १/११, लोक प्रकाश
रत्नप्रभा के दूसरे भाग में असुर. .. -३६/३८, जम्बू० ५० (दिग.)२/३१,
कुमार भवनपति और राक्षस.
व्यन्तरपति के आवास हैं । (६० त्रिलोकपार-७६९, बृहत्क्षेत्रसमास-३७, ६. लोक प्रकाश-१२/१९३-१९४, पण्णवणा
ति० प० ३/७; राजवार्तिक-३/१/८ . सूत्र-२/१०६, जीवाजीवा. सू. ३/११६
(तत्र खरपृथिवीभागस्योपर्युपर्यध
चौक योजनसहवं परित्यज्य ७. 'लोक प्रकाश-१२/२०१-२३१, ८. लोक प्रकाश-१३/१-२, हरिवंश पु.
मध्यमभागेषु चतुर्दशसु योजन४/५९-६३,
सहस्रेषु....)].
१०. हरिवंश पु. २/१, जम्बू० प० (दिग.): ९. (क) पण्णवणा सू. २/१०६-१:९, जीवा
१२/९३, त. सू. ४/१२ पर श्रुतसागरीय : जीवा. सू. ३/११६-१२१, (इमीसे
टीका, जीवाजीवा. सू. ३/१९५, जम्बू० रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोय
प० (श्वेता०) ७/१६५, णसयसहस्सबाहल्लाए उनि एग ११. जीवाजीवा. सू. ३/१५३ १७७ (मदरोजोयणसहस्स ओगाहित्ता हेटुचेग
हेश), जंबू० प० (श्वेता.) ७/१२६, जोयणसहस्स वज्जित्ता मज्झे अठ
१९/९९-१०१, जबूद्दीव प. (दिग.) १२/ हुत्तरे जोयणसयसहस्से)।
१४, त्रिलोकसार-३४६, हरिवंश पु. (ख) दिगम्बर-परम्परा में कुछ मिन्न ६/२६, चन्द्रप्रज्ञप्ति (श्वेता.) १/३/१२,
मत है । इसके अनुसार रत्नप्रभा भगवती सू. ९/१/२-५, समवायांगके तीन भागों में से प्रथम भाग ६६/३३२, बृहत् क्षेत्रसमास-३९५,६४६.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org