SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ अनेक प्राचीन सिद्धान्त आज स्वय विज्ञान का निराकरण भी किया गया है । द्वारा खंडित हो गए हैं । पृथ्वी के नारंगी (८) पृथ्वी की स्थिरता की तरह गोल होने की मान्यता पर भी इसी तरह, जैनागम-परम्परा में पृथ्वी कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों का मत्य है। को स्थिर माना गया है, न कि भ्रमणअनेक वैज्ञानिक-प्रयोगों से पृथ्वी के नारंगी शील४ । वेद आदि प्राचीन भारतीय प्रन्थों की तरह गोल होने की मान्यता पर प्रश्न- में भी पृथ्वी को स्थिर कहा गया है । चिहून लगा है। अमेरिका में 'फ्लैट अर्थ सोसा- - इटी' नामक संस्था कार्य कर रही है जो ३. द्र० (१) पृथ्वीका आकार-निर्णय-एक पृथ्वी को चिपटी सिद्ध कर रहीं है । भारत समस्या, (२) क्या पृथ्वी का आकार गोल है ? (३) भूगोल विज्ञान- समीक्षा । में भी पू० १०५ आदिका ज्ञानमती माता जी के निर्देशन में दिग० जैन त्रिलोक शोध [प्रकाशक-जबूद्वीप निर्माण योजना, कपसंस्थान (हस्तिनापुर, मेरठ-उ० प्र०), तथा डवंज, गुज०)] (४) विज्ञानवाद विमर्शः (प्रका० भ-भ्रमण शोध संस्थान, पू. ५० प्रवर मुनि श्री अभयसागर जी गणी म० की प्रेरणा से कार्यरत 'भू-भ्रमण शोध महेसाणा, गुज०) सस्थान' (The Earth Rotation Res- ४. (क) सूर्य की भ्रमणशीलता का उल्लेख earch Institute) (मेहसाना, उ० गुज जैन शास्त्रों में प्राप्त है-सूर्य प्रज्ञप्ति रात) आदि संस्थाएं इस में उल्लेखनीय है । १।९-१०, भगवती सूत्र-वृत्ति-५।१। १-२, पूज्य ५० प्रवर मुनि श्री अभयसागर (ख) किन्तु धवला ग्रन्थ (दिग०) में जी गणि के. प्रयत्नों से विविध साहित्य का आचार्य वीरसेन ने पृथ्वी की निर्माण हुआ है जिसमें पृथ्वी के विज्ञान भ्रमणशीलता का भी संकेत किया सम्मत आकार के विरुद्ध, वैज्ञानिक रीति से है, जो वस्तुतः मननीय है :ही प्रश्न व आपत्तियां उठाई गई हैं, और द्रव्येन्द्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमजैनसम्मत सिद्धान्त के प्रति सम्भावित दोषों णमिति किं नेष्यते, इति चेन्न । तद्-भ्रमणमन्तरेण आशुभ्रमज्जी2. See : Research-article 'A Crtici वानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः sm upon Modern Views of Our (धवला, १११,१,३३. उद्धत-जैन Earth' by Sri Gyan Chand Jain सिद्धान्त कोश, २॥३३९-४० पृष्ठ)। (appeared in Pt. Sri Kailash ५. ध्रुवा पृथिवी (पातंजल योग सू० २।५ Chandra Shastri Felicitation Vo पर व्यास-भाष्य) । ध्रुवासि धरणी lume, pp. 446-450). (यजुर्वेद-२१५) । पृथिवी वितस्थे (ऋ० ११७२।६)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy