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स्थाली के समान आकार वाली भी बताया जम्बूद्वीप का आकार भी रकाबी (खाने गया है । १०
की प्लेट) के समान सपाट गोल है, जिसकी ___ पृथ्वी की परिधि वृत्ताकार है, तभी इसे उपमा रथ के चक्र, कमल की कर्णिका, तले परिवेष्टित करने वाले घनोदधि आदि वातों हुए पूए आदि से की गई है२ । जम्बूद्दीवपण्णत्ति की वलयाकारता भी संगत होती है । ११ (दिगम्बर परम्परा) में इसे सूर्य मण्डल की
दिगम्बर-परम्परा में इसकी उपमा खडे तरह घृत्त३, तथा सदृश-वृत्त बताया गया है। हए मृदग के ऊर्ध्व भाग (सपाट गोल) से भी उपयुक्त निरुपण के परिप्रेक्ष्य में जैनदी गई है।
परम्परा के अनुसार, पृथ्वी नारंगी की तरह
गोल न होकर चिपटी (चौडी-पतली, सपाट११/१०/८, हैम-योगशास्त्र-४/१०५, आदि पुराण-४/४१, आराधनासमुच्चय
दर्पण के समान) सिद्ध होती है। ५८, जंबूद्दीव प० (दिग०) ११/१०६,
प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों (श्रीपति,
श्रीलल्ल, सिद्धान्तशिरोमणिकार भास्कराचार्य १०. (क) स्थालमिव तिर्य ग्लोकम् (प्रशमरति,
आदि) ने भी पृथ्वी को समतल ही माना (ख) भगवतीसूत्र में एक स्थल पर
है। वायुपुराण, पद्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तमध्यलोक को 'वरवन' की तरह की
रपुराण, भागवत आदि पुराणों में भी पृथ्वी
को समतलाकार या पुष्करपत्रसमाकार बताया बताया गया है-'मज्झे वरवइरविग्गहियसि-५/९/२२५ (१४) ।
गया है५ । ११. जीवाजीवाभिगम ३/१/७६ (घनोदहिवलए (७) (जैन दर्शन और विज्ञान : वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए) ।
_ आधुनिक विज्ञान इस पृथ्वी को नारंगी १. मज्झिमलोयायारो उब्भिय-मुरअद्धसा- की तरह गोल मानता है। जैन-सम्मत रिच्छो (तिलोयपण्णत्ति, १/१३७), श्वेता० २. जबूहीवे...वट्टे तेल्लापूयस ठाणसलिए परम्परा में ऊर्ध्व लोक को ऊर्ध्व मृद- वट्टे रहचक्कवालस ठाणसं ठिए वट्टे क्खरगाकार माना है (भगवती सू० ११/१०/ कण्णियास ठाणसठिए (जबूहीवपण्णत्ति९) । [ति० ५० की ऊर्ध्व मृदंगाकार श्वेताम्बर, १/२-३) । जीवाजीवाभिगम मान्यता में गाणितिक दृष्टि से कुछ सू०३/२/८४,३/१२४, स्थानांग-१दोष था (ऊर्ध्व लोक का घनफल १४७ २४८ औपपातिक सू० ४१, घन रज्जू होना चाहिए, जो इस मान्यता ३. जंबूहीवपण्णत्ति (दि०) १/२०, में कठिन था), इसलिए आ० वीरसेन- ४. जौंबूद्दीव प० (दिग०) ४/११ प्रतिपादित आयत चतुरस्राकारलोक की ५. · द्रष्टव्य-विज्ञानवाद विमर्श-(प्रका० भूमान्यता दिग० परम्परा में अधिक __ भ्रमण शोध संस्थान, महेसाणा-गुज०), मान्य हुई ।
पृ० ७५-८१
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