SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीनों वातवलय वायुरुप ही है,४ किन्तु है८ । मनुष्य लोक-इसी (रत्नप्रभा) पृथ्वी का सामान्यतः वायु अस्थिर-स्वभाववाली होती एक बहुत ही छोटा भाग है। है, जब कि वे वातवलय स्थिर-स्वभाव वाले (६) हमारी पृथ्वी का आकार व स्वरुप वायु-मण्डल हैं । इस दृष्टि से गीता का यह मा नाम अन्वर्थ १९ । इस कथन जैन मत से साम्य रखता है कि लोक पथ्वी में रत्न, वैडूर्य, लोहित आदि विविध में वायु सर्वत्र व्याप्त है और वायु आकाश प्रभायुक्त रत्न प्राप्त होते है। पर स्थित है। ____ हमारी यह धरती, नीचे की छ धरतियों मध्य-लाक का आधार यह पृथ्वी के मुकाबले, में आकार (लम्बाई-चौड़ाई) में सबसे छोटी (कम पृथुतर) है । १ किन्तु जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र मोटाई में यह अधिक है । २ जहाँ रत्नप्रभा तक असंख्य द्वीप व समुद्र वाले मध्यलोक पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार का आधार इस रत्नप्रभा का ऊपरी 'चित्रा' योजन मोटी है ! ३ वहां द्वितीय पृथ्वी एक पटल है६ । मेरु पर्वत एक लाख योजन लाख बत्तीस हजार, तृतीय एक लाख अठाविस्तार वाला है । उसमें ओक हजार योजन ईस हजार, चतुर्थ एक लाख वीस हजार, पृथ्वीतल से नीचे है, तथा निन्यानवे हजार पंचम एक लाख अठारह हजार, षष्ठ एक योजन पृथ्वी से ऊपर है । इसी मेरु पर्वत से .. मध्यलोक की सीमा निर्धारित की जाती है। ८. त० सू० १/१-१०, लाकप्रकाश-१५/४५ अर्थात् मध्यलोक पृथ्वीतल से एक हजार योजन (रत्नप्रभोपरितल वर्ण याम्यथ तत्र च । नीचे से प्रारम्भ होकर, निन्यानवे हजार योजन सन्ति तिर्थगसंख्येयमाना द्वीपपयोधयः । ऊंचाई तक स्थिर है। सार्होद्धाराम्भोधियुग्मसमोः प्रमिताश्च ते)। जम्बूद्वीप आदि द्वीप, लवणोद आदि ९. ति० ५० १/१०, सर्वार्थसिद्धि १/१, समुद्र, भरतादि क्षेत्र, मेरु एवं वर्षधर आदि राजवार्तिक १/१/१, अन्वर्थ'जाति सप्तानां पर्वत, कर्मभूमियां, भोगभूमियां, अन्तद्वीप गोत्राण्याहुरमूनि वै । रत्नादीनां प्रभाआदि इस पृथ्वी (चित्रा पटल) पर अवस्थित योगात् प्रथितानि तथा तथा (लोक प्रकाश ११/१६१)। ४. त्रिनिर्वायुभिराकीण : (ज्ञानार्णव-३३/४) त्रिषष्टि० २/३/४८८, जीवाजीवाभिगम ५. यथाकाशस्थितो नित्य वायुः सर्वत्रगो - सू० ३/२/९२, भगवती सू० १३/४/१०, ___ महान् (गीता-१०/६)। . २. जीवाजीवाभिगम सू० ३/१/८० भगवती ६. त्रिषष्टि० र/३/५५२-५३, सू० १३/४/१०, ७. तनुवातान्तपर्यन्तस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः ३. लोकप्रकाश १२/१६८, ति० प० २/९, लक्षितावधिरूभंधो मेरुयोजनलक्षया हरिवंश पु० ४/४७-४९, जीवाजीवा० (हरिवंश पु० ५/१) । ३/१/६८,जबूढीव प०(दिग०) ११/११४, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy