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(८) द्वितीय पृथ्वी-शर्कराप्रभा तथा जल से पृथ्वी का उद्गम माना गया है ।२
(इससे नीचे पुनः घनोदधि, घनवात [आकाश, वायु, आग की लपटें, जलतनुवात वलय है।)८
इनमें उत्तरोत्तर सघनता है । घनोदधि शब्द में रत्नप्रभा से लेकर महातमनभा तक सातों आए हुअ उदधि (जल-सागर) शब्द से, तथा पध्वियां एक दूसरे के नीचे छत्रातिछत्र जैनागमनिरूपित 'गोमूत्र'वत् वर्ण से इसकी के समान आकार बनाती हुई स्थिति है। जल से समता प्रकट होती है। सम्भव है, इस सन्दर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से उप
घनोदघि जमे बर्फ की तरह ठोस चट्टान जैसा निषद् का वह कथन मननीय है जो बृह- हो । 'तनुवात' सूक्ष्म व तरल वायु हो, इसकी
दारण्यक समस्त धरातल को जल से, जल की तुलना में अधिक सघन 'धनवात' आग की वायु से, वायु को आकाश से ओतप्रोत बताता
- लपटों की तरह अधिक स्थूल हो । धन यानी है? । तैत्तिरीय उपनिषद् का वह कथन भी यहां
__मेघ, मेघ में वायु बिजली का रुप धारण
मघ, मननीय हैं जिसके अनुसार आकाश से वायु
करती है, बिजली अग्नि का एक रुप है। का, वायु से अग्नि का, अग्नि से जल का, इस दृष्टि से घनवात को 'अग्नि' के रुप में
- वर्णित किया गया प्रतीत होता है । इस . सम्बन्ध में भा दाना परम्परा मतमद सम्बन्ध में तुलनात्मक अध्ययन-हेतु एक पृथक् रखती है। इस सम्बन्ध में दिग० पर- शोध-पत्र अपेक्षित है।] म्परा के ग्रन्थ-तिलोयपण्णत्ति (१/२७१), तथा त्रिलोकसार (१२५), जंबूद्दीव प० बौद्ध ग्रन्थों में भी ऐसा वर्णन मिलता (दिग०) ११/१२२ आदि द्रष्टव्य है। है जिसके अनुसार पृथ्वी जल पर, जल वायु श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जीवा- पर, तथा वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है३ । जीवाभिगम (सू० ३/१/७६) तथा लोकप्रकाश (१२/१८२-१९०) आदि उल्ले
२. आकाशाद् वायुः बायोरग्निः, अग्नेरापः खनीय है।
अदभ्यः, पुथिवी (तैत्ति० उप० ११/२/२)। ८. तिलोय ५० २/२१, त्रिषष्टि० २/३/४९१
३. पृथिवी भों गोतम क्व प्रतिष्ठिता । ९३, त० सू० ३/१ भाष्य । आकासपइ
पृथिवी ब्रह्मणा अन्मडले प्रतिष्ठिता । ठिए वाये, वायपइठिए उदही, उदही-.
अमडलो भो गौतम क्व प्रतिष्ठतः । पइदिठया तसा थावरा पाणा (भगवती
आकाशे प्रतिष्ठतः । आकाशं भी गौतम सू० १/६/५४) ।
क्व प्रतिष्ठितम । अतिसरसि ब्राह्मण....
आकाश ब्राह्मण अप्रतिष्ठितमनालम्बनमिति १. यदिदं सर्वमप्सु ओतं च प्रोतं च" आप विस्तरः (मिलिन्दप्रश्न-६८, अभिधर्म कोशओताश्च प्रोताश्चेति वायौं' 'वायुरोतश्चेदमन्त- १/५ की व्यारव्या में डात)। द्र० रिक्षलोकेषु गागी ती (धृहदा० उप० ३/६/१) । अभिधर्म काश-३/४५-४७) ।
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