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________________ यान को १२१ मिनट लगे और चन्द्र की अपेक्षा चौगुनी बडी पृथ्वी की परिक्रमा करने में केवल ९० मिनिट लगे, यह कैसे सम्भव है ? उपर्युक प्रश्नों और उसके चिंतन-मनन से उत्पन्न प्रतिप्रश्नों के बारे में कोई निश्चित उत्तर वैज्ञानिकों की ओर से नहीं मिल पाये । एक विवेकशील मनुष्य लिये वैज्ञानिक विचारसरणी के आधार पर होने वाले उन प्रश्नोंका बहुत ही महत्त्व है, और जब तक ऐसे विसंवादों का उचित समाधान नहीं मिल जाय, तब तक चन्द्र पर वैज्ञानिकों के पहुचनेकी आतुर कल्पना करके शास्त्रों के कथन पर अविश्वास करना तथा उन्हें निरर्थक कहने की धृष्टता नहीं करना चाहिए । इसी विवेचन के लिये पू. प. मुनिराज श्री अभयसागरजी गणी ने एक मननीय समीकरण निम्नानुसार प्रस्तुत किया है— जिज्ञासा + ज्ञान = विज्ञान श्रद्धा + ज्ञान = तत्त्वज्ञान = जिज्ञासा + तर्क विज्ञान विज्ञान + तत्त्वज्ञानं = वस्तुका सम्पूर्ण दर्शन । पूज्य मुनिराजश्री की सदैव यह दृढ़ धारणा रही है - " सत्य वस्तु की जानकारी ही बुद्धिका फल है । विवेकशील मनुष्य सदैव सत्य-तत्त्व पर अपने लक्ष्य को केन्द्रित रखते है " अपनी इस बात को अधिक स्पष्ट करते हुए वे सत्य के दो स्वरूप बतलाते हैं(१) वस्तु - सत्य और ( २ ) प्रचार सत्य | इनमें जो वस्तु वास्तव में जैसी है, वैसी ही बताये और यथावत् समझें उसे वस्तु Jain Education International सत्य कहते है । इस कोटिमें विज्ञान या विज्ञानवाद नहीं टिक पाता और केवल कल्पना की तरंगों अथवा मन की धारणाओं का व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण, विशिष्ट भाषा शैली, तदनुरूप विविध प्रकार के कल्पनाचित्र और ( बहु ) अनेक - मुखी प्रचार आदि बाह्य घटाटोप से सत्य जैसा दिखाई देता हो उसे प्रचार सत्य कहते हैं । जिसके परिणाम स्वरूप " गिरा हुआ गोबर धूल लेकर ही उठता है ।" इस उक्ति के अनुसार जनता के मानस में असत्य अथवा असल, वस्तु भी स्थान प्राप्त कर लेती है " तथा उत्तरोत्तर विविध प्रभावशाली प्रचार के साधनों से वह असद् वस्तु भी सत्यरुप में जनमानस में रुढ़ बन जाती है । यह सब प्रचार सत्य की लीला है । आज के बुद्धिवादी युग में प्रचार - सत्य की बातें वस्तु - सत्य की कोटि में आने लगी है । इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति को तटस्थता - पूर्वक विचार एवं परीक्षण की कसोटी पर चढाकर परखने की आवश्यकता है कि प्रचारसत्य वस्तु कौनसी है ? और वस्तु सत्य कौन सी वस्तु है । मानव - सुलभ स्वभाव के अनुसार भारतीय प्रजा अपने धर्म और शास्त्रों के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी बाहच घटाटोप और उत्तरोत्तर प्रचार के कारण कुछ डाबाँडोल स्थिति पहुंचा रही है । आज तक हमारा संस्कृति पर होने वाले विभिन्न आक्रमणों का हमने वीरता - पूर्व क सामना किया है । पूर्ववर्ती आक्रमणों के प्रति यदि कहीं उपेक्षा हुई हो तो वह इसलिये कि हमारे आगमादि शास्त्रों का उनको ज्ञान For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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