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होता१ । दूसरा दोष यह आयेगा किं पुदगल में सांख्य-योग एक ऐसा आत्मवादी दर्शन द्रव्य को जीव मानना पडेगा २ अतः एकेन्द्रिय है जो आत्मा को ज्ञान स्वरुप नहीं मानता द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव, है, इसकी विस्तृत मीमांसा की गई है । ज्ञान बादर सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब नाम स्वरुप आत्मा का पर्यवसान सर्वज्ञता में हुआ कम की प्रकृतियां हैं । ये सब व्यवहार है । आत्मा अपने कर्मों का कत्तौ, भोक्ता नाम की अपेक्षा जीव की हैं, वास्तव में और स्वामी है । इन विशेषणों के द्वारा उन (पारमार्थिक दृष्टि से) नहीं है । चिन्तकों के मत की मीमांसा करना अभीष्ट
जैन दर्शन में आत्मा के स्वरुप का प्रति- है जो आत्मा को वास्तव में कर्त्ता-भोक्ता नहीं पादन करते हुए कहा गया है कि आत्मा मानते हैं । सांख्य दर्शन के दार्शनिकों का चेतन स्वरुप, उपयोगात्मक अपने किये गये मत है कि पुरुष अकर्ता है और उपचार कर्मों का स्वामी है, पुण्य-पाप कर्मो का रुप से कम फलों का भोक्ता है । जैन कर्ता, एवं उन कर्म फलों का भोक्ता, शरीर दार्शनिकों को उनका यह कथन तर्क संगत परिमाण, अमूर्तिक और कम संयुक्त है। प्रतीत नहीं हुआ है। इसी प्रकार उन दार्शनिभावपाहड में उपयुक्त विशेषणों के अतिरिक्त कों का यह कथन भी ठीक नहीं है जो आत्मा को अनादि निधन भी बतलाया है। आत्मा के कम फलों के प्रदाता रुप में कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने ईश्वर की कल्पना करते है। .. आत्मा के इस स्वरुप का अनुकरण किया है। इसी प्रकार आत्मा को शरीर प्रमाण
जीवको चेतन स्वरुप कहने का तात्पर्य बतला कर उन वैदिक दर्शनों के सिद्धान्तो यह है कि चेतन आत्मा का स्वाभाविक गुण का निराकरण किया गया है जो आत्मा को है आगन्तुक नही, जैसा कि न्याय वैशेषिक व्यापक और अनुरुप मानते हैं । जैन दर्शन और मीमांसकों ने माना है । जैन दर्शन की अनेक आत्माओं में विश्वास करता है । भांति सांख्ययोग और वेदान्तियों ने भी आत्मा ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि अद्वैत . को चेतन स्वभाववाला माना है। आत्मा को वेदान्तियों की तरह जैन दार्शनिक रह नहीं उपयोग स्वरुप कहकर जैन दार्शनिकों ने उन मानते हैं कि आत्मा एक है । उन्होने आत्मा मतो का निराकरण किया है जो आत्मा को का सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्गीकरण किया है । ज्ञान स्वरुप नहीं मानते हैं । भारतीय दर्शन जैसे-उमा स्वामीने कहा है कि आत्मा के दो १. वही, गा० ५८-६०
२. कत्ता मोह अमुत्तो सरीर मित्तो २. द्रष्टव्य-वही, गा० ६१-६४
दसणणाणुवयोगो निविट्ठो, जिणवरिंदेहिं ।। ३. (क) वही, ० ५-६८
___-भावपाहुड १४८ (ख) प्र० सागा० २-९०
३. (क) द्रव्यसंग्रह गाथा २ । १. पंचास्तिकाय गाथा २७
(ख) तत्वार्थ सूत्र २/८
___ अणाइणिहणो य ।
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