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________________ में भी कहा है कि आत्मसिद्ध, शुद्ध सर्वज्ञ स्थिति बन्घस्थान, सक्लेश स्थान, संयमलब्धि सर्वदर्शी ओर केवलज्ञान रुप है। स्थान, जीव समास ओर गुण स्थान जीव ___ निषेधात्मक शैली द्वारा आचार्य ने नही है४ । क्षायिक भाव, क्षायोपशामिक, बताया है कि शुद्ध आत्मा क्या नहीं है, ओर औपशमिक भाव जीव है । चतुर्गति शुद्ध जीव न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है। उसके रुप संसार परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, न ज्ञान है, न दर्शन है और न चरित्र है, रोग शोक, कुल, स्त्री, पुरुष नपुंसकादि न कम है, न नो कम है. पर्याय शुद्ध जीव के नहीं है । क्यों कि न सचित्ताचित्त पदार्थ है१ । शरीरादि बद्ध और वर्णादि उपर्युक्त भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम धन धान्य आदि अबद्ध पुद्गल जीव के नहीं हैं । अतः व्यवहार नय की अपेक्षा उपर्युक्त है ओर न वह अनेक भावो से युक्त है। भाव जीव के कहलाते है६ । जिस प्रकार यदि ये पुद्गल द्रव्य जीव के होते तो दुध ओर पानी दोनों पृथक्-पृथक् होते हैं, पुद्गल भी जीव हो जाता । व्यवहार नय लेकिन आपस में मिल जाने पर एक से से शरीर ओर जीव एक है लेकिन निश्चय- प्रतीत होने लगते हैं। उसी प्रकार जीव दृष्टि से शरीर ओर जीव भिन्न-भिन्न ओर उपयुक्त पुद्गल के परिणाम पृथक्जीव समस्त पर भावों से भिन्न है २ । पृथक् होते हैं ओर परस्पर में मिल जाने पर एक अध्यवसान कर्म, अध्यवसान भावों में तीन से प्रतीत होने लगने हैं ७ उदाहरणार्थ किसी पुरुष अथवा मन्द अनुभाग गत नो कम कम - को मार्ग में लुटते देखकर व्यवहार से कहा उदय, कमों का तीव्र अथवा मन्द भाव से जाता है कि अमुक मार्ग लुटता हैं। उसी युक्त अनुभाग, जीव ओर कर्म का संयोग प्रकार जीव में कर्मादि देखकर व्यवहारी लोग जीव नहीं है । क्यों कि ये सभी भाव उन्हें जीव के कहने लगते है। जैसे मार्ग पुद्गल द्रव्य के परिणाम है। आचार्य ने नही लुटता है पुरुष लुटता है, उसी प्रकार उदाहरण द्वारा समझाया है कि व्यवहार नय से वास्तव में कर्म, वर्णादि जीव के नही से अध्यवसानादि भाव जीव उसी प्रकार है होते है । संसारी जीवों के संसारावस्था में जैसे कि सेना के निकलने पर सेना के समह ही उपयुक्त कम', वर्णादि होते है । मुक्ता. को राजा व्यवहार से कहा जाता है । वस्था में उसके नही होते है। यदि जीव के वण', गन्ध, रस, स्पर्श, रुप, शरीर, सस्थान साथ वर्णादि भावों का अभिन्न स ब ध होता संहनन, राग, द्वेष मोह, प्रलय, कम, वर्ग तो जीव और अजीव मे कोई भेद ही नही वर्गणा, स्पर्द्धक अध्यवसाय, अनुभाग, योग ४. वही, गा० ५०-५५ । नि० सा० गा० स्थान, बन्ध स्थान, उदय स्थान, मार्गणास्थान, ४० एव ४५ १. समयसार, गाथा ६-७, १९-२२ ५. नियमसार, गा० ४१-४२ । २. वही, गाथा २३-३७ ६. स०सा०, गा०५६ ३. वही गा० ३९-४९ ७. वही, गाथा ५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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