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________________ वाला द्रव्य अर्थात् आत्मा जुगनू की तरह आत्मा का न्याय-वैशेषिक तथा प्रभाकर की बोधात्मक और अबोधात्मक है । ४ तरह आगन्तुक गुण न मानकर सांख्यों की . ___ चिदांस रुप में आत्मा वस्तुओं को जानता तरह स्वभाव मानता है जिसका मोक्ष में भी है और अचिदांस रुप में आत्मा ज्ञान सुखादि क्षय नहीं होता है । ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य में परिणत होकर अह, प्रत्यय का विषय में आत्मा शरीरादि से भिन्न नित्य, शुद्ध, बनता है । अतः इस मत में आत्मा ज्ञाता बुद्ध, मुक्त, अजर अमर, निराकार निरवयव, और ज्ञेय दोनों है । प्रभाकर आत्मा को ज्ञाता व्यापक, विशुद्ध चैतन्य स्वरुप, निष्क्रिय, अप. और ज्ञेय दोनों मानने के विरुद्ध है। प्रभाकर रिणामी, उपाधिशून्य, (कम जन्य) सुख दुःख आत्मा को ज्ञाता ही मानते हैं ज्ञेय नहीं। से पर, १ ज्ञाता, ज्ञेय से रहित ज्ञान स्वरूप इनके मत में ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय तीनों माना गया है । शकर आत्मा को अनेक न एक साथ प्रकाशित होते हैं । इसे त्रिपुटी मानकर एक मानता है। अद्वैत वेदान्त में प्रत्यक्ष कहते ५ है। जीव और आत्मा को भिन्न-भिन्न स्वीकार (घ) अद्वैत वेदान्तः किया गया है । अविद्या के कारण आत्मा अद्वैत वेदान्त संप्रदाय में उपनिषदों की शरीरादि उपाधियों से परिच्छिन्न हो कर जीव कहलाने लगता है । शंकर जीवों को तरह ब्रह्म और आत्मा में अभेद माना गया शरीरादि का स्वामी, कर्ता भोक्ता, २ अहकारी, है । इस कथन की पुष्टि के लिए शंकराचार्य अनेक प्रति शरीर भिन्न, सक्रिय मानता है । ने उपनिषदों के महावाक्यों को उद्धृत अविद्या के कारण इसका पुनर्जन्म होता है । किया ६ है। लेकिन शंकर ने तात्विक रूप से जीव और यह मत आत्मा को ज्ञान का, विषय आत्मा में अभेद स्वीकार किया है । नही मानता है । यद्यपि आत्मा निगुण है, ३ जिसकी अभिव्यक्ति मोक्ष में होती है। लेकिन इसकी तात्पर्य यह नहीं है कि वह जगत् की तरह असत् अचित् (जड) एवं ब बिशिष्टाद्वैत : दुःखात्मक है । इसी दोषको दूर करने के रामानुज द्वारा मन्तव्य तीन तत्त्वों में लिए शकरने आत्मा को सत् , चित् और आत्मा चित् तत्त्व है । रामानुज मी अन्य आनन्द स्वरुप माना है । चैतन्य को शंकर दार्शनिकों की तरह आत्मा को शरीरादि से ४. प्र० ८०, ६, ९५-९६ ।। भिन्न ज्ञानवान् , चैतन्य स्वरुप, नित्य, सत्य ५. भा. द., रुपरेखा, (एम. दिरियन्ना), अणु, अव्यक्त, स्वयं प्रकाशक, आनन्द रुप, पृ. ३०५. ३०६ ॥ १. ब्र. सू. शा. भा. १.१.४; १.३.८, २.३.७। अहं ब्रह्मास्मि, (बृ. ड., १।४।१) २. ब्र. शा. भा. २.३. १७ । . तत्त्वमसि, छा. उ०,६।८।६। अयमात्मा ३. भा. द. (डाँ राधाकृष्णन) भा. १, पृ. ब्रह्म) बृ. ३. २।५-१९। ५९३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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