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________________ भिन्न मानते १ हैं । ईश्वर कृष्ण ने सांख्य शरीर की कल्पना की है । यह लिंग शरीर कारिका २ में प्रकृति और पुरुष का भेद बद- पुरुष के साथ अनादि काल से है । पुरुष जाते हुए कहा है कि पुरुष चैतन्य स्वरुप अनेक है इसलिए लिंग शरीर भी अनेक है । अपरिणामी त्रिगुणातीत विवेकी अविषयक, प्रत्येक पुरुषका लिंग शरीर अलग-अलग होता असामान्य (असाधारण) अप्रसव धर्मी, नित्य, है। यही पुनजन्म का कारण है । तत्त्वज्ञान कूटस्थ, निरमव, अकर्ता, भोक्ता, दृष्टा व्या, (विवेक) होने पर लिंग शरीर और पुरुष का पक अनादि एवं साक्षी मात्र, तथा कैवल्य संबध नष्ट हों, जाता है । योग दार्शनिक भी स्वभाव वाला ३ है । सांख्यन्याय-ौशेषिकों सांख्यो की तरह ही पुरुष का स्वरुप बतलाते की तरह जड़ या चौतन्य को पुरुष का स्वभाब है। गुण नही मानता बल्कि चैतन्य को पुरुषका दोनों में महत्व पूर्ण अंतर यह है स्वभाव मानता है । सांख्य-योग दार्शनिक कि योगदर्शन में एक सदामुक्त । पुरुष पुरुष को ज्ञान स्वरुप नही मानते । इन के की मान्यता है जिसे वह ईश्वर कहता हैं । मत में ज्ञान प्रकृति का गुण है, पुरुष का नहीं । इसी प्रकार आनन्द पुरुष का स्वरुप (ग) मीमांसाः न मानकर बुद्धि का गुण मानते हैं, जो प्रकृति मीमांसा दर्शन में आत्मा की परिकल्पना का ही परिणाम हैं। सांख्ययोग दाशनिक न्याय वैशेषिक दर्शन की तरह है । प्रभाकर पुरुष को अनेक मानते ४ है। इसकी अनेकता उसके मतानुयायी आत्मा को शरीरादि से सिद्ध करते हुए सांख्य कारिका ५ में कहा भिन्न चैतन्य गुण का. आधार नित्य, ज्ञाता, है कि प्रत्येक मनुष्य के जन्म मरण इन्द्रियां विभु, कर्ता, भोता, अबिनाशी, अपरिवर्तनशील, कर्म एवं उसके अन्य कार्यकलाप भिन्न अनेक, प्रति शरीर भिन्न भिन्न मानते २ है। भिन्न होते हैं । अतः पुरुष अनेक हैं सांख्य कुमारिल प्रभाकर की अपेक्षा आत्मा को दार्शनिक बंध और मोक्ष प्रकृति का मानते चैतन्य स्वरुप मानते ३ है। पञ्चदशी में है, पुरुष का नहीं बल्कि पुरुष में ये आरो कुमारिल मत के वर्णन में वह लाया गया है पित है । सांख्ययोग्य दार्शनिको ने एक लिंग कि कुमारिल मत में आत्मा गूढ चैतन्य १. सांख्य प्रवचन भाष्य, ६,४, ६, ३, २, ३९ । १. भा. द. (संपादक डा. न. कि. देबराज) त्रिगुणमविवेकीविषयः सामान्य पू०, ४३३ । म-चेतन प्रसवधर्मी व्यक्त तथा २. (क) शा. भा. (शवर स्वामी) १.१.५७ प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् (ख) प्र० ५: पृ० १४३-६, ॥ सां. का. अ । ३. (क) यही का. १९ । (ख) वःद. स. (हरिभद्र) (ग) पश्चदशी, (मित्र दीप प्रकरण) श्लोक का. ४१ ८८-९०) ४. सां. का.,२३ । ५. सांख्य कारिका, १८ ३. श्लोक वार्तिक (आत्मा....) ६४५) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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