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________________ प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ । वैदिक दर्शनों में आत्मा सम्बन्धी विविध विचारणाएं उपलब्ध होने के कारण प्रत्येक वैदिक परम्परा का अलग अलग उल्लेख, करना आवश्यक है । (क) न्याय-वैशेषिक न्याय-वैशेषिक दर्शन वस्तुवादी दर्शन है । इस परम्परा में आत्मा को शरीरादि से भिन्न एक स्वतन्त्र, द्रव्य माना गया है । १ इस दर्शन के चिन्तकों ने आत्मा को स्वभाव से जडवत् बतलाया है । अन्य जड़ द्रयों से इस द्रव्य में यह भेद किया गया है कि "चतन्य जो आत्मा का स्वाभाविक नहीं आगन्तुक गुण है, उसकी उत्पत्ति, आत्मा में ही हो सकती ९ है । इस तरह आत्मा को चैतन्य या ज्ञान का आधार माना गया २ है । इस विषय में उनका तर्क है कि ज्ञान या चैतन्य की उत्पत्ति आत्मा का मन के साथ और मन का इन्द्रियों के साथ, और इन्द्रियों का विषय के साथ सन्निकर्ष या संयोग होने पर होती है । अपने इस सिद्धान्त के कारण न्याय-वैशेषिक आत्मा को चैतन्य १ - न शरीरस्य चैतन्य' - | परिशेषादाकार्यत्वात् तेनात्मा समधिगम्यते । प्रशस्तदेव पादभाष्यम्, पृ० ४९-५० १- द्रष्टव्य : डा० राधाकृष्णन् : भारतीय दर्शन ( भाग २ ) पृ० १४८ – ४९ । २- (क)- बुद्धादीनां गुणानामाश्रयो वक्तव्यः स एवात्मा । - केशव मिश्र, त० भा० पृ० १४८ । (ख) ज्ञानाधिकरणमात्मा । त० सं०, पृ० १२ Jain Education International ११ स्वरुप न कह कर चैतन्यवान कहना अभीष्ट समझा है । जैसा कि कहा जा चुका है मुक्तावस्था में शरीरादि का अभाव होने से उसे चैतन्य विहीन माना है । न्याय-वैशेपिक का यह सिद्धान्त अन्यभारतीय दार्श - निकों को सन्तुष्ट न कर सका, फलतः उसे कड़ी आलोचना का विषय बनना पडा, जैस कि हम आगे देखेंगे । उन्होंने आत्मा को क्षेत्रज्ञ, निरन्वयी, शाश्वत, अविनाशी, व्यापक ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, पाप पुण्य कर्मों का भोक्ता, प्रति शरीर भिन्न अनेक और अपरि मी बताया है । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आत्मा के विशेष ३ गुण बताये गये है । सांख्य-योग : जिसे अन्य दर्शनोमें आत्मा कहा गया है उसे सांख्य- योग दर्शन पुरुष कहा गया है । न्याय वैशेषिक की तरह सांख्य योग दार्शनिक भी पुरुष को शरीरादि से _लिंगम् । न्यायसूत्र ३- (क) इच्छाद्वेष_ १-१-१० (ख) सुखदुःखादिवैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः । _ तस्य सामान्यगुणाः सुखादयः पं'च बुद्धयादयो नव विशेषगुणाः । केशव मिश्रः तक भाषायां, पृ० १६० (ग) विभवान्महानाकाशस्तथा आत्मा । महर्षि कणाद : वै०, सू०, ७-१-२२ (घ) स च सर्वत्र कार्योपलम्भाद् विभुः, परममहत्परिमाणवानित्यर्थः । विभुत्वाच्च नित्योऽसौ व्योमवत् । केशव मिश्र : त० भा०, पृ० १४६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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