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________________ जैन आगमों में भी आत्मा को विभिन्न नामों से अनिहित किया गया है । धवलार में आत्मा के जीव, प्राणी, जन्तु क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ, और ज्ञानी पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं । इसी प्रकार आदि पुराण में भी जीव, कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोका, पुद्गल, वेद, विष्णु स्वयंभू, शरीरी, मानव, सक, जन्तु, मानी, मायी, योगी, संकुट, अर्कुट, क्षेत्रज्ञ, अग्र और जीवात्मा के नामो का उल्लेख किया गया है | ३ अन्तरात्मा, २. (घ) क्षेत्रज्ञावात्य निपुणी, इति हैमः । - ३/१५० आत्मा चित्ते घृत्य यत्ने, घिषजाया कलेवरे । परमात्मनि जीवे के हुताशन सभी रयोः ॥ स्वभावे इति हेमः । २/२६१-६२ (ङ) हिन्दी शब्द सागर, प्र. भा. प्र. सं. १८६५, पृ. ४३७ (च) दार्शनिक, त्रैमासिक, सम्पादक यशदेव शल्य, वर्ष २१, अंक २, अप्रेल १८७५, जीवो कभी य वक्ता य प्राणी भोता य पोलो । वेदे णिहू सयंभू य सरीरी तह माणवो ॥ सत्तां तु यमाणी यमाई जोगीय संकडो । १० को खेत्त अंतरप्पा तहेव य ॥ —पटूखंडागम धवला टीका | १/१/१/२ / ८१-८२, पृ. ११८-२० ३. जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा । पुमानात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्थ पयमाः ॥ - आदि पुराण ( महापुराण), २४ / १०३ Jain Education International (अ) वैदिक अथवा हिन्दु-दर्शन में आत्मचिन्तनं आत्म-तत्व के चिन्तन की जो धारा उपनिषदों में प्रवाहित हुई उसका विकास वहीं समाप्त नहीं हुआ । कालक्रम से विकसित होने वाले विविध वैदिक दर्शनों में आत्म-तत्त्व चिन्तन का प्रधान (मूलभूत ) विषय बन गया । उपनिषद् - त्तरकालवर्ती आत्म-स्वरुप का स्वतन्त्र दृष्टि से गम्भीरता पूर्वक चिन्तन किया और उस विषय में अपनी-अपनी धारणाएं प्रस्तुत की । उपनिषदों में उपलब्ध आत्मा के विविध रूपों के परिणाम स्वरूप हिन्दु दर्शनों में आत्मा सम्बन्धी विविध विचारधाराओं का प्रतिपादन हो सका है । सर्वदर्शन संग्रह, षड्दर्शनसमुच्चय आदि प्राचीन आचार्यों में न्याय वैशेषिक, सांख्य- योग और पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मिमांसा (वेदान्त) को वैदिक दर्शन कहा है । क्यों कि इन दर्शनों में उपलब्ध दार्शनिक चिन्तन का प्रमुख आधार वेदवाङ मय है । जैसा कि हम देखों कि हिन्दु दर्शनों में आत्मस्वरूप के विषय में समयसमय पर परिवर्तन होता रहा इसलिए उनमें एक रुपता नहीं है । इस दृष्टि से यह परम्परा बौद्ध परम्परा से समता रखती प्रतीत होती है । जैन धर्म-दर्शन में ऐसी बात नहीं है | वहां आगमकालीन साहित्यसे ले कर आज तक उपलब्ध दार्शनिक साहित्य का आलोचन करने से प्रतीत होता है कि आत्मवाद की जो मान्यता ऋषभदेव के समय में थी वैसी ही आज भी है । उसमें किसी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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