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________________ है, उससे दो महत्त्वपूर्ण बातों पर प्रकाश पित नहीं हुआ है । इसके विपरीत बाद के पड़ता है । एक तो यह कि उपनिषद काल दर्शन अपने आत्म-सम्बन्धी चिन्तन को के पूर्व ही आत्मा विषयक चिन्तन विद्यमान प्रमाणों अथवा तर्को द्वार! पुष्ट करने का था, जिसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे । दूसरे प्रयत्न करते हैं । उपनिषदों का आत्मा विषयक चिन्तन परम्परा इतनी भूमिका के बाद हम आत्मप्राप्त ऋग्वेदिक चिन्तन से भिन्न था। सम्बन्धी विभिन्न-मतव्यों का अलग-अलग उपनिषदों के अध्ययन के आधार पर कहा दर्शनों के अनुसार वर्णन करेगे । अन्त में जा सकता है कि उपनिषद काल में आत्म- हम जैन दर्शन के एतद् सम्बन्धी समन्वयविद्या क्षत्रियों के पास थी और ऋषि लोग कारी विचारों का विवरण देंगे । उसके जानने के लिए शिष्यता भाव से उनके सर्व प्रथम यहाँ पर यह उल्लेख कर पास जाते थे । - देना आवश्यक है कि आत्मा के लिए भारजैसा कि हमने कहा कि भारतीय दर्शन तीय-वाड्.मय में विभिन्न शब्दों का प्रयोग में आत्म-सम्बन्धी चिन्तन का सूत्रपात हुआ है। जैसे अमर कोश, मेदिनी आदि उपनिषदों में हुआ, किन्तु उपनिषदों का चिन्तन संस्कृत कोशों में आत्मा, अत्म, धैर्य, बुद्धि, वक्तव्यों के रुप में है, वहाँ आत्म-सम्बन्धी स्वभाव, ब्रह्म, परमात्मा, शरीर, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, कथनों को तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न मन चेतना जीव, स्व, परब्रह्म, सार, अहंकार नहीं दिखाई पड़ता । ऐसा नहीं कि उप- स्वरूप, प्रवृत्ति, चिन्तन, विवेक, बुद्धि या निषद कारों के मन में आत्म-तत्त्व को तर्कना शक्ति, प्राण, उत्साह, पुत्र, सूर्य, अग्नि लेकर विमर्श मूलक प्रश्न नहीं उठते, किन्तु और वाय१ शब्द आत्मा के वाचक बतलाये वे प्रश्न भी प्रायः सांकेतिक हैं, उन पर विशद् गये हैं। रुप में तर्कानुप्राणित विचारणा प्रायः उपलब्ध - १. (क) आत्मा अत्मो धृति बुद्धिः स्वभावो नहीं होती । उदाहरण के लिए बृहदाराण्य ब्रह्मवम च ॥–अमर कोष, ३/ कोपनिषद् में कौतूहल के साथ कहा गया है-'विज्ञातारमरे ! केन विजानीयात्'-अर्थात् ३/ श्लोक १०८ (ख) क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरूषः । वही, १/४/२८ आत्मा जो ज्ञाता है उसे किस के द्वारा जाना जाय ? कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मनि इस प्रश्न का समाधान संकेत रूप में भले चित्तै धृतौ च बुद्धौ च परव्यावर्तने ही हुआ हो, तर्क द्वारा पुष्ट रुप में निरु पि च ।। इति धरणिः । .. १. (क) दास गुप्ताः भारतीय दर्शन का (ग) आत्मा पुसि सगभावे पि प्रयत्नइतिहास भाग १ पृष्ठ ३१ मनसोरपि । धृतावपि मनीषायां (ख) जैन साहित्य की इतिहास की शरीर बृह्यणोरपि ॥-इति मेदिनी, पूर्व पीठिका पृष्ठ ८ ८५/३८-३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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