SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दार्शनिक देकार्त ने आत्मा का प्रधान व्यावतक गुण चिन्तन शक्ति या सोचना माना था । इसके विपरीत भौतिक द्रव्य का व्याघक गुण है विस्तार अथवा देशगतता या देशरूपता । इस दृष्टि आत्मा को देशगत नहीं कहा जा सकता | देकार्त को यह सिद्ध करना पड़ता है कि हमारी समस्त मनोदशाएं चिन्तन का ही रूप है । इसके विपरीत यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने आत्मा में तीन विभाग या शक्तियां मानी थी अर्थात् मूल आवेग तथा बुद्धि । सम्भवतः प्लेटो के बुद्धि अंश को अमर मानता था की बात यह है कि प्लेटो और दे ही आत्मा की धारणा हमारे सांसारिक जीवन के आधार पर बनाते हैं, किन्तु भारतीय दर्शन प्रायः जीव और आत्मा में भेद करते है । उन्होंने आत्मा के स्वरुप पर मुख्यतया मोक्ष की दृष्टि से विचार किया है । सांसारिक जीवन से संपृक्त और शरीर से सम्बद्ध चैतन्य को, जिसमें तरह-तरह की gure हैं, वे मुख्यतः हिन्दू दर्शन में जीत्र नाम से पुकारते हैं । । देखने दोनों मोक्ष की दृष्टि से यहां का आत्म-सम्बन्धी चिन्तन कतिपय विशेष निष्कर्षो पर पहुंचता दिखाई पड़ता है । पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए आत्मा की अमरता मानना आवश्यक और पर्याप्त है । किन्तु मोक्ष की कल्पना यह आवश्यक बना देती है कि आत्मा को अपने मूल रूप में विशुद्ध अर्थात् सुख-दुःख आदि मनोदशाओं से विरहित तत्त्व माना जाय । हम देखेंगे कि प्रायः सभी दर्शन किसी न किसी रूप में उक्त मान्यताओं को Jain Education International क्षुधाएं आत्मा ८ स्थान देते हैं । अनात्मवादी चार्वाक दर्शन तथा पंचस्कन्धवादी बौद्ध दर्शन ही इसके अपवाद हैं । प्रधान भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व बन गया, इसके दो मुख्य कारण थे, पहला कारण तो यह था कि बहुत प्रारम्भ में कर्म - सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म की धारणाएं भारतीय मनीषा में प्रतिष्ठित हो गयी, दूसरे यहां उपनिषद् काल में ही मोक्षवाद की मान्यता सर्व स्वीकृत - सी बन गयी । पुनर्जन्म के सिद्धान्त ने आत्मा की अमरता के विश्वास को जन्म दिया, मोक्षवादने आत्मा के निजस्वरुप की अवधारणा को जैसा कि हम देखेंगे क्रान्तिकारी रुप दिया । आत्म-तत्व की प्रधानता का तीसरा कारण श्रमण-धर्मो का उदय और प्रसार था । जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही सृष्टि कर्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, फलतः उनके दर्शनों में आत्मा या जीव-तत्त्व के विश्लेषण का महत्त्व बढ़ गया । श्रमण-धर्मदर्शनने मोक्ष की अवस्था को जीवात्मा के निज - स्वभाव से सम्बद्ध किया, यही विचार उपनिषदों में भी प्रकट हुआ । फलतः मोक्षवाद की दृष्टि से, आत्म-तत्त्व का स्वरुपान्वेषण महत्व की चीज बन गया । आत्मा विषयक चिन्तन का प्रारम्भ कब और कहां से हुआ, इसके सम्बन्ध में कोई भी निश्चयात्मक कथन करना कठिन है । ऋग्वेद में आत्मा सम्बन्धी चिन्तन विरल है, फिर भी वहाँ पर शरीर आदि से भिन्न सारतत्व के रूप में उसकी कल्पना की गई है। उपनिषदों में आत्मा विषयक जो विवेचन उपलब्ध होता For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy