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भारतीय दर्शन में आत्मा की अवधारणा
एक आलोचनात्मक दृष्टि
डॉ. लालचन्द्र जैन.
प्राध्यापक प्राकृत शोधसंस्थान.
वैशाली
____ आत्म-तत्त्व भारतीय-दार्शनिकों के दर्शनों में भी द्रव्य की धारणा प्रधान है । चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है । यहाँ हम ईसाई-शन आत्मा को अजर-अमर नही इस बात का विचार करेंगे कि भारतीय मानता, वहाँ ईश्वर-तत्त्व प्रधान है । ईश्वर आत्म-सम्बन्धी चिन्तन की प्रधान प्रेरणा और ही आत्माओं का स्रष्टा है। इसी प्रकार उसकी प्रकृति क्या है ? भारत में आत्म- हेगेल और ब्रेडले के दर्शनों में निरपेक्ष प्रत्ययचिन्तन की प्रधानता रही, किन्तु ऐसा कहने तत्त्व या पर ब्रह्म प्रमुख धारणाए हैं। का तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य सस्कृ. इस दृष्टि से भारतीय आत्मवाद की कतिपय तियोंमें आत्मा के स्वरुप पर विचार नहीं निजी विशेषताएं हैं जो, उदाहरण के लिए हुआ । आत्मा के सम्बन्ध में विचार विश्व यूरोपीय-दर्शन में, उस रुप में नहीं पाई की दूसरी संस्कृतियों में भी हुआ और जातीं । हमारा यह वक्तव्य क्रमशः समझा किसी न किसी रूप में आज भी हो रहा और समज्ञाया जा सकेगा । संक्षेप में कहे है, किन्तु इतर-दर्शनों में आत्म-चिन्तन की तो भारतीय दर्शन का आत्म-चिन्तन उसके समस्या उतनी प्रधान नहीं रही ! उदाहरण मोक्षवाद से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है । के लिए हम पाश्चात्य दर्शन को ले सकते . इसका क्या अभिप्राय है ? आत्मा की कल्पना हैं । प्लेटो के दर्शन में प्रत्यय-जगत की और उसके स्वरुप का विचार कई दृष्टियों से प्रधानता है । वहाँ श्रेयस-प्रत्यय का स्थान किया जा सकता है । वे समस्त दृष्टियाँ सर्वोपरि है । इसी प्रकार एरिस्टाटल (अरस्तू) मानव-जीवन की व्याख्या के प्रयत्न में जन्म के दर्शन में आकार और द्रव्य, तत्त्व तथा लेती हैं । उदाहरण के लिए मनुष्य ज्ञाता है, गति-हीन गति दाता ईश्वर जो विश्व-प्रक्रिया इसलिए आत्मा में ज्ञान-शक्ति का आरोप का लक्ष्यभूत कारण भी है, प्रधान तत्त्व किया जाता है । हम कहते है कि आत्मा दिखाई देते हैं। देकार्त और स्पिनोजा • के चेतन या चैतन्य रुप है । फ्रांस के प्रसिद्ध
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