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अणु रुप में स्थित मानसों की उपमा देता चिन्तन-परक होता है । अतः उनमें आत्महै । मानो ये असंख्य मन शिष्य बन कर दृष्टि का पल्लवन होना कोई नई बात गुरु रुपी अश्व से वेगपूर्वक दौडने की नहीं है । कला सीखने आये है। नल-दमयन्ती के
अभिराज डॉ. राजेन्द्र मिश्र प्रणय-प्रसंग में भी कवि ने अनेकशः मनो.
प्रवका संस्कृत-विभाग वृत्तियों को उपन्यस्य किया है ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय । प्रस्तुत निबन्ध में उन काव्यों की चर्चा २७. अजस्रभूमीतटकुट्टनोद्गतैरुपास्यामान जानबूझ कर नहीं की गई है, जिनका लक्ष्य
चरणेषु रेणुभिः । धर्म अथवा प्रसंगतः मोक्ष पुरुषार्थ है, क्यों रयप्रकर्षाध्ययनार्थ मागतैर्जनस्य । कि ऐसे काव्यों का तो संविधानक ही तत्त्व चेतोभिरिवाऽणिमाङ्कितैः॥-नैषध०९/५९
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विशुद्ध ज्ञान प्रवेशे ?
ज्ञान अपने आपमें स्वानुभूतिजन्य और 0 चेतना के माध्यम से प्रकट होता है ।
इंद्रियां, बुद्धि एवं मन उसमें सहायक होते हैं, किंतु उत्पत्ति के उपादान नहीं
___अतः स्वानुभूतिकी धराको और चेतनाको महापुरुषों के कृपा कटाक्षसे
निर्मल बताये रखना जरूरी है । S$$$$$$$$$s$99999999sss:$$
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