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________________ कालिदास आत्मा की सत्ता, उसका बन्धन- भी लोकान्तर में अपने पियरों की दुर्दशा का मोक्ष, उसका संसरण-सब स्वीकार करते हैं। अनुभव होने के कारण महान क्लेश होता शकुन्तला को पतिगृह प्रेषितकर महर्षि कण्व है२४ । इस प्रकार कालिदास जीवन-मरण, अपनी आत्मा को 'प्रकाम-विशद' अनुभव आत्मा, लोकान्तर तथा संसरण आदि का न करते हैं२० । धैर्य धारण करने के सन्दर्भ में केवल समर्थन करते हैं बल्कि अपने पात्रो यक्ष भी 'आत्मबोध' की ही चर्चा करता है। के साथ ही साथ स्वयं को भी उनसे सम्बद्ध प्रत्याख्याता शकुन्तला को भी संशय की घड़ी एवं सन्दर्भित स्वीकार करते है । में 'आत्मबोध' ही होता है२१ । परन्तु कालि- संस्कृत के अन्य कवियों ने भी कालिदास दास बद्ध आत्मा के नहीं प्रत्युत भुक्त- सम्मत इस आत्मदृष्टि का अनुकरण किया है । आत्मा के स्वप्नदर्शी है । शाकुन्तल के भरत- शिशुपालवध में माघ शिशुपाल के पूर्व जन्मों वाक्य में वह 'पुनर्भव' के प्रति अनास्था (हिरण्यकशिपु तथा रावण) का दृष्टान्त देते व्यक्त करते हुए मुक्ति की आकांक्षा करते है२२ । हुए बताते हैं कि पतिव्रता नारी के समान परन्तु आकांक्षा-मात्र व्यक्त करने से सुनिश्चला प्रकृति भी जन्मान्तर में भी प्राणी क्या होगा? अक्षीण वासनायें मनुष्य को का साथ नहीं छोड़ती । भवभूति की समस्त पुनः घटाधाम पर ला ही देती हैं । रघुवंश प्रीतिव्याख्यायें आत्मिक स्तर पर कन्दलित महाकाव्य में सीता को अपने ही पूर्व जन्मा- हैं शरीर-स्तर पर नहीं । राम और सीता र्जित पातको के विस्फूर्जन का भाव होता का प्रेम बस, गूंगे का गुड' था । उस प्रेम है, अतः पुनर्जन्म को अनिवार्य मानकर भी को बस वही दोनो समझते थे, संसार नहीं२६ । वह घबड़ाती नहीं, बल्कि कठोर तप से उन नैषधकार श्रीहर्ष कवि से अधिक एक पातकों को समूल उत्पादित कर देने को उद्भट दार्शनिक थे । अतः दार्शनिक-चिन्तन समुद्यत हो उठती हैं२३ । पुत्रहीन दुष्यन्त को उनके काव्य में भी पदे पदे अनुस्यूत है । २०. जातो ममाय विशदः प्रकाम महाराज नल का अश्व खुरों की चोट से प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा-शाकु०६/२२ जो धूल उड़ाता है उन धूतिकणों को कवि, २२. नन्वात्मान बहु विगणयन्नात्मनैवाव लम्बे । उत्तर मे इलो ५ २४. नून प्रसूतिविकलेन मया प्रसिक्त २२. ममापि च क्षपयतु नीललोहितः धौताश्रुशेषमुदकं पितरः पिबन्ति ॥ .. पुनर्भव परिगतशक्तिरात्मभूः ॥ शाकु० ६/२५ - -शाकु० ७/३५ २५. सतीव योषित् प्रकृतिः सुनिश्चला । .. २३. ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जथुरप्रसह्यः १४/६२ पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि ॥ भूपो यथ। मे जननान्तरेऽपि त्वमेव -शिशुपाल० १/७२ '. भर्ता न च विप्रयोगः । १४/६६ २६. हृदय त्वेव जानाति प्रीतियोग परस्परम् । -रघुवंशमहाकाव्यम् उत्तर० ६/३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005569
Book TitleJambudwip Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages250
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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