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________________ रहित शरीर और आत्मा को एक माननेवाला 'अंतरप्पा हु अप्पा संकप्पो' अन्तरात्मा आत्मा जीव बहिरात्मा है ।28 का संकल्प है। ___इस बहिरात्मा को गुणस्थान की दृष्टि से परमात्मा :- "कम्मकल कविमुक्को भी समझा सकता है । मिथ्यात्व, साखा- परमप्पा" कर्मरूपी कलंक से रहित आत्मा दन, और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में परमात्मा है । यह परमात्मा अतीन्द्रिय है, तारतम्य न्यूनाधिक रुपसे है, जिनके कारण ये केवल है, विशुद्धात्मा है, परमेष्ठी हैं, परमतीन गुणस्थान बहिरात्मा रूप हैं । षड्- जिन, है, शिव-शङ्कर है, शाश्वत है और आवश्यक कर्मों से रहित आत्मा बहिरात्मा सिद्ध है।31 परमात्मा के भी दो भेद हैं है । इन्द्रियाँ बहिरात्मा है ।29 (१) सकल परमात्मा (सयोग-केवली) और अन्तरात्मा :-ज्ञान-दर्शनस्वरूप आत्मा निकल परमात्मा (अयोगकेबली) । चार का नाम अन्तरात्मा है । इस अन्तरात्मा के घातियाँ कर्मों से रहित लोक और अलोक के उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद किये गये है। पदार्थों को देखनेवाले अरहंत सकल-परमात्मा २४. प्रकार के परिग्रह-रहित (14+10) है । द्रव्यकम और भावकम तथा नोक शुद्ध परिणाभी, आत्मध्यानी मुनि उत्तम (औदारिक, (मनुष्य और पशुओं के) वैक्रियकआत्मा हैं । (देव, नारकियों का शरीर) आहारक-ऋद्धि * धारीयों के मस्तक से निकला रुप) से रहित । देशयति गृहस्थ और सरागी छठे गुण तथा ज्ञान ही जिन का शरीर हैं, वे विकल स्थानवर्ती मुनि मध्यम अन्तरात्मा है । परमात्मा हैं । व्रत रहित सम्यक्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है । .. आत्मा क्या है ?- आत्मा ग्राहक है क्षीणकषाय-गुणस्शन में उत्तम अन्तरात्मा (ज्ञाता है) इन्द्रियां पदार्थों के ग्रहण करने है, अविरत और क्षीण गुणस्थान के बीच में में साधन हैं ।32 आत्मा के चले जाने पर जो सात गुणस्थान हैं, उनमें मध्यम अन्तरात्मा शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता हैं। हैं और अविरत-गुणस्थान में उसके योग्य कल्पना से आत्मा का माप नहीं किया जा अशुभ-लेश्या से परिणत आत्मा, जघन्य सकता हैं और न वाणी द्वारा एवं तर्क के अन्तरात्मा है। द्वारा उसका प्रतिपादन किया जा सकता है । आवश्यक कर्म सहित बाह्य और अभ्यंतर क्यों कि आत्मा के विविध रुप हैं । फिर भी परिग्रह से युक्त एवं धर्मध्यान और शुक्ल उन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता ध्यान से परिणत आत्मा अन्तरात्मा हैं ।30 है-(१) मुक्त-आत्मा और (२) बद्ध-आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005568
Book TitleJambudwip Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages190
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size23 MB
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