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________________ वह उसी का कर्ता हो जाता है । जो जीव त्रस नामकर्म के कारण त्रस जीव कहलाता पर को अपना और अपने को परका करता हुआ है ।24 मनुष्य तिर्यंच आदि के रूप को मानता है, वह विकल्प रूप है । यह विकल्प प्राप्त कर आत्मा संसार में परिप्रमण करता हैं। अज्ञान-भाव का कारण हैं, जिसके कारण ८. सिद्ध :-आत्मा सिद्ध स्वरुप है । आत्मा परद्रव्य का कर्ता हो जाता है । शरीर से रहित निरीकार, क्षेत्र एवं कर्म पुद्गल-द्रव्य को उत्पन्न करना, बांचना, रहित आत्मा सिद्ध है । कर्मों से रहित्त एवं परिणमन कराना, ग्रहण कराना, आदि क्रियाओं अनंत गुणों से युक्न आत्मा सिद्ध है । विमुक्त को आत्मा करता हैं । 21 आत्मा लोक के अग्र-भाग तक जाता है ।25 ५. भोक्ता :- आत्मा ज्ञानगुण को ९. उर्ध्वगमन-स्वभावी :- आत्मा भोगनेवाला है, शुभ-अशुभ कर्मों को भोग- प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश इन चार नेवाला है । आत्मा व्यवहार से सुख-दुःख बन्धों से रहित होकर स्वभावतः उर्ध्वगमन को रूप पुद्गल कर्मों को भोगनेवाला है और प्राप्त होता है । निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान-दर्शन को भोगने- आत्मा के भेद :-योग, वेद, कषाय, ज्ञान, वाला है । इसलिए कहा जाता कि आत्मा दर्शन, संयम लेश्या, भव्यत्व, संज्ञी, असंज्ञी, अपना कर्ता है और अपना भोक्ता है ।22 मति आदि के कारण आत्मा के अनेक भेद ६. स्वदेह-प्रमाण :-आत्मा शरीर के कहे गये हैं। मार्गणा, गुणस्थान और सत् प्रमाण के बराबर है- सर्वव्यापक और अणुरूप . संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा आत्म-स्वरूप नहीं है । आत्मा दीपक के प्रकाश की तरह ओर आत्मा के भेदों का कथन किया हैं । संकोच तथा विस्ताररूप परिणमन करनेवाला गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, है । अर्थात् आत्मा छोटे शरीर में छोटा और संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, बड़े शरीर में बडा । जिस प्रकार दूध में संज्ञित्व और आहारक इन मार्गणाओं मिथ्यात्व, डुबोई गई पद्मरागमणि दूध को अपने रूप सास्वादन आदि चौदह गुणस्थानों, सत् , कर लेती है, उसी प्रकार आत्मा शरीर के संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अंतर, विकास और द्वारा उसके अनुसार संकोच एवं अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों द्वारा आत्मा विस्तार रूप हो जाता है। 23 का अन्वेषण करना चाहिए ।26 ७. संसारस्थ :-शुभ और अशुभ परिणामों आत्मा के मूल तीन भेद हैं -27 (१) के कारण आत्मा संसारी है । स्थावर नाम बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) और परमात्मा । कर्म के कारण जीव स्थावर कहलाता है और (१) बहिरात्मा :-तत्वों के ज्ञान से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005568
Book TitleJambudwip Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages190
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size23 MB
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