________________
૧૯૨
અધ્યાત્મ ઉપનિષદ્ - ભાગ પહેલો, ૧-શાસ્ત્રયોગશુદ્ધિ અધિકાર
(२१) उपलब्धि के अभाव में अनुपलब्धि का अभाव कथन कर दूषण देना, अनुपलब्धिसमा जाति है । जैसे, किसीने कहा कि उच्चारण के पहले शब्द नहीं था, क्योंकि उपलब्ध नहीं होता था । यदि कहा जाय कि उस समय शब्द पर आवरण था, इसलिए अनुपलब्ध था, तो उसका आवरण तो उपलब्ध होना चाहिए था । जैसे कपडे से ढकी हुई कोई वस्तु भले ही दिखाई न दे लेकिन कपडा तो दिखाई देता है, उसी तरह शब्द का आवरण तो उपलब्ध होना चाहिए । इसके उत्तर में
जातिवादी कहता है, जैसे आवरण उपलब्ध नहीं होता, उसी तरह आवरण की अनुपलब्धि (अभाव) भी तो उपलब्ध नहीं होती । यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योकि आवरण की अनुपलब्धि नहीं होने से ही आवरण की अनुपलब्धि उपलब्ध हो जाती
(२२) एक की अनित्यता से सब को अनित्य प्रतिपादन कर दूषण देना, अनित्यसमा जाती है । जैसे, यदि किसी धर्म की समानता से शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाये, तो सत्त्व की समानता से सब वस्तुएँ अनित्य सिद्ध हो जायेंगी । यह उत्तर ठीक नहीं । क्योंकि वादी और प्रतिवादी के शब्दो में भी प्रतिज्ञा आदि की समानता तो है ही, इसलिए जिस प्रकार प्रतिवादी (जाति का प्रयोग करनेवाला)के शब्दो में वादी का खण्डन होगा, उसी प्रकार प्रतिवादी का भी खण्डन हो जायेगा । अत एव जहाँ जहाँ अविनाभाव हो, वहीं वहीं साध्य की सिद्धि मानना चाहिए, न कि सब जगह ।
(२३) अनित्यत्व में नित्यत्व का आरोप करके खण्डन करना, नित्यसमा जाति है । जैसे शब्द को अनित्य सिद्ध करते हो, तो शब्द में अनित्यत्व नित्य है, या अनित्य ? यदि अनित्यत्व अनित्य है, तो शब्द नित्य कहलाया (धर्म के नित्य होने पर धर्मी को नित्य मानना पडेगा) । यदि अनित्यत्व अनित्य है, तो शब्द नित्य कहलाया । यह असत्य उत्तर हैं, क्योंकि जब शब्द में अनित्यत्व सिद्ध है, तो उसीका अभाव कैसे कहा जा सकता है। दूसरे, इस तरह कोई भी वस्तु अनित्य सिद्ध नहीं हो सकेगी । तीसरे अनित्यत्व एक धर्म है, यदि धर्म में भी धर्म की कल्पना की जायेगी तो अनवस्था हो जायेगी । __ (२४) कार्य को अभिव्यक्ति के समान मानना (क्योंकि दोनों में प्रयत्न की आवश्यकता होती है) और केवल इतने से ही सत्य हेतु का खण्डन करना, कार्यसमा जाति है । जैसे प्रयत्न के बाद शब्द की उत्पत्ति भी होती है, और अभिव्यक्ति (प्रगट होना) भी, फिर शब्द को अनित्य कैसे कहा जा सकता है ? यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि प्रयत्न के अनन्तर होने का मतलब है, स्वरूप लाभ करना । और अभिव्यक्ति को स्वरूप लाभ नहीं कह सकते । प्रयत्न के पहले यदि शब्द उपलब्ध होता, या उसका आवरण उपलब्ध होता, तो अभिव्यक्ति कही जा सकती थी।"
- स्याद्वादमंजरी डो. जगदीशचन्द्र जैन के भाषान्तर में से
For Personal Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International