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भतिप्राय: युक्तियो - परिशिष्ट - २
कार्यत्व की व्याप्त है, लेकिन ऐन्द्रियकत्व और नित्यत्व की व्याप्ति नहीं ।
(१६) भूत आदि काल की असिद्धि प्रतिपादन कर हेतु मात्र को हेतु कहना, अहेतुसमा जाति है । जैसे हेतु साध्य के पहले होता है, या पीछे होता है, या साथ होता है ? पहले तो हो नहीं सकता, क्योंकि जब साध्य ही नहीं, तब साधक किस का ? न पीछे हो सकता है, क्योंकि जब साध्य ही नहीं रहा, तब वह सिद्ध किसे करेगा ? अथवा जिस समय साध्य था, उस समय यदि साधन नहीं था, तो वह साध्य कैसे कहलायेगा ? दोनों एक साथ भी नहीं बन सकते, क्योंकि उस समय यह सन्देह हो सकता है कि कौन साध्य है; कौन साधक है ? जैसे, विंध्याचल से हिमालय की और हिमालय से विंध्याचल की सिद्धि करना अनुचित है, उसी तरह एक काल में होनेवाली वस्तुओं को साध्य-साधक ठहराना अनुचित है । यह असत्य उत्तर है, क्योंकि इस प्रकार त्रिकाल की असिद्धि प्रतिपादन करने से जिस हेतु के द्वारा जातिवादी ने हेतु को अहेतु ठहराया है, वह हेतु (जातिवादी का त्रिकालसिद्धि हेतु) भी अहेतु ठहर गया, जिससे जातिवादी का वक्तव्य स्वयं खण्डित हो गया । दूसरी बात यह है कि कालभेद होनेसे या अभेद होनेसे अविनाभाव सम्बन्ध बिगडता नहीं है, यह बात पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर, कार्य, कारण, आदि हेतुओं के स्वरूप से स्पष्ट विदित हो जाती है । जब अविनाभाव सम्बन्ध नहीं बिगडता, तब हेतु, अहेतु कैसे कहा जा सकता है ? कालकी एकता से साध्य - साधनमें सन्देह नहीं हो सकता, क्योकि दो वस्तुओं के अविनाभाव में ही साध्य - साधन का निर्णय होता है । अथवा दो में से जो असिद्ध हो वह साध्य, और जो सिद्ध हो, उसे हेतु मान लेने से संदेह मिट जाता है ।
(१७) अर्थापत्ति दिखलाकर मिथ्या दूषण देना, अर्थापत्तिसमा जाति है । जैसे, यदि अनित्य के साधर्म्य (कृत्रिमता) से शब्द अनित्य है, तो इसका मतलब हुआ कि नित्य (आकाश) के साधर्म्य (स्पर्श रहितता) से नित्य है । यह उत्तर असत्य है, क्योंकि स्पर्श रहित होनेसे ही कोई नित्य कहलाने लगे, तो सुख वगैरह भी नित्य कहलायेंगे ।
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(१८) पक्ष और दृष्टान्त में अविशेषता देख कर किसी अन्य धर्म से सब जगह (विपक्ष में भी) अविशेषता दिखलाकर साध्य का आरोप करना, अविशेषसमा जाति है । जैसे, शब्द और घट में कृत्रिमता से अविशेषता होनेसे अनित्यता है, वैसे ही सब पदार्थों में सत्त्व धर्म से अविशेषता है, अत एव सभी (आकाशादि-विपक्ष भी) को अनित्य होना चाहिए । यह असत्य उत्तर है, क्योकि कृत्रिमता का अनित्यता के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, लेकिन सत्त्व का अनित्यता के साथ नहीं ।
(१९) साध्य और साध्यविरुद्ध, इन दोनोके कारण दिखलाकर मिथ्या दोष देना, उपपत्तिसमा जाति है । जैसे, यदि शब्द के अनित्यत्व में कृत्रिमता कारण है तो उसके नित्यत्व में स्पर्शरहितता कारण है । यहाँ जातिवादी अपने ही शब्दों से अपने कथन का विरोध करता है । जब उसने शब्द के अनित्यत्व का कारण मान लिया तो नित्यत्व का कारण कैसे मिल सकता है ? फिर स्पर्शरहितता की नित्यत्व के साथ व्याप्ति नहीं है ।
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(२०) निर्दिष्ट कारण (साध्य की सिद्धि का कारण साधन) के अभाव में साध्य की उपलब्धि बताकर दोष देना, उपलब्धिसमा जाति है । जैसे, प्रयत्न के बाद पैदा होने से शब्द का अनित्यत्व प्रतिपादन करना । लेकिन ऐसे बहुत से शब्द हैं जो प्रयत्न के बाद न होने पर भी अनित्य हैं; उदाहरण के लिए, मेघ गर्जना आदि में प्रयत्न की आवश्यक्ता नही है । यह दूषण मिथ्या है, क्योकि साध्य के अभाव में साधन के अभाव का नियम है, न कि साधन के अभाव में साध्य का । अग्नि के अभाव में नियम से धुँआ नही रहता, लेकिन धुँए के अभाव में नियम से अग्निका अभाव नहीं कहा जा सकता है ।
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