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જેમ, બકરાંના ટોળામાં રહેલો બાલ-સિંહ સ્વ-જાતિય સિંહને જોઈને પોતાના અસલ સ્વરૂપને-સિંહપણાને ઓળખી લે છે, તેમ અનાદિ કાળથી પર-ભાવમાં ભૂલા પડેલા આત્માને પ્રભુનાં દર્શનથી પોતાના શુદ્ધ-સ્વરૂપની યથાર્થ-ઓળખાણ થાય છે.
આ રીતે પ્રભુની મહાન કરુણાના પ્રભાવે આત્માની જ્ઞાનાદિ શક્તિઓનો આવિર્ભાવ થાય છે. હે પ્રભુ ! ચારિત્રરૂપી નૌકાના ચાલક(સુકાની) હોવાથી ભવ-સમુદ્રથી પાર ઉતારનાર હોવાથી આપ મહા-નિર્ધામક છો ! દ્રવ્ય અને ભાવ હિંસાથી રહિત અને પરમ અહિંસા-ધર્મના ઉપદેશક હોવાથી આપ માહણ છો ! આત્માના કર્મ-રોગની સમ્યગુ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ ભાવ-ચિકિત્સા બતાવનાર હોવાથી આપ મહા-વેદ્ય છો છ-કાય જીવોની રક્ષા કરનાર હોવાથી તેમ જ જ્ઞાનાદિ ગુણના-ભંડારના રક્ષક હોવાથી આપ મહા-ગોપ છો ! ભયારણ્યમાં ભટકતા ભવ્ય જીવોના આધાર હોવાથી આપ પરમ-આધાર છો !
દેવોમાં ચંદ્ર સમાન નિર્મળ અને સુખના સાગર પ્રભુ ! આપ જ સમ્યક્ જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્રાદિ ભાવ-ધર્મના દાતાર છો. કેમ કે, આપના ઉપદેશથી-આપનાં દર્શનથી ભવ્ય જીવોને ભાવ-ધર્મની પ્રાપ્તિ થાય છે તેથી ભાવ-ધર્મના દાતાર પણ આપ જ છો !
द्वितीय स्तवन का सार... इस स्तवन में कारण-कार्यभाव की व्यवस्था का सुन्दर शैली से वर्णन करते हुए उपादान-कारण की अपेक्षा भी निमित्तकारण की प्रधानता पर अधिक भार दिया गया है । किसी भी कार्य की उत्पत्ति उसके कारण और कारण-सामग्री मिलने से कर्त्ता के प्रयोग द्वारा होती है । जैसे घटरूप कार्य में मिट्टी उपादान-कारण है, दण्ड-चक्रादि निमित्त-कारण है और कुम्भकार कर्ता है ।
कार्य की निष्पत्ति(सिद्धि) कर्ता के आधीन होती है । यदि कुम्भकार दण्ड का घटरूप कार्य करने में प्रयोग करे तो घटरूप कार्य की सिद्धि हो सकती है परन्तु उसी दण्ड से यदि वह घट का ध्वंस करना चाहे तो उसी दण्ड से घट का ध्वंस भी हो सकता है अतः कार्य की सिद्धि कर्ता के आधीन होती है।
(१) उपादान कारण : जो कारण, कार्य के रूप में अभिन्न रूप से परिणत होता है। (२) निमित्त कारण : जो कारण, कर्ता के प्रयोग द्वारा कार्योत्पत्ति में सहकारी बनता है । यहाँ घटरूप कार्य घट के कर्ता (कुम्भकार) से भिन्न है अत एव घट का कर्ता भी उस घट से भिन्न है ।
परन्तु यदि उपादान-कारण और कर्ता एक ही हो तो वह कार्य भी कर्ता से अभिन्न होता है । इसीलिए सिद्धता (मोक्ष)रूप कार्य का कर्ता और उसका उपादान-कारण आत्मा एक ही होने से वह सिद्धता (मोक्ष)रूप कार्य आत्मा से अभिन्न है, उसका कर्ता आत्मा भी सिद्धता से अभिन्न है ।
अर्थात् मोक्षरूप कार्य का कर्ता अपनी आत्मा है और उपादान-कारण भी अपनी आत्मा के ज्ञानादि गुण हैं । निमित्त-कारण देवाधिदेव परमात्मा हैं और आर्य देश, उत्तम कुल आदि उसकी सामग्री है । ____ मोक्षरूपी कार्य के पुष्ट निमित्तकारणरूप श्री अरिहंत परमात्मा के योग से जीव को मोक्षरूचि उत्पन्न होती है अर्थात् प्रभु की पूर्ण प्रभुता के स्वरूप को जानने से भव्य जीव को भी वैसी प्रभुता प्रकट करने की अभिलाषा होती है । प्रभु को देखते ही उसका हृदय आनन्द से पुलकित बन जाता है भवभीरु साधक भक्तिपूर्ण हृदय से करुणासिन्धु परमात्मा के समक्ष सदा यह प्रार्थना करता रहता है कि
हे दीनदयालु कृपासिन्धु प्रभो ! इस संसार सागर से मेरा निस्तार करो | मुझ दीन को भीषण भवभ्रमण से उबारो, आप ही मेरे तारक हो । आपके सिवाय अन्य कोई भी मुझ अनाथ को पार उतारने में समर्थ नहीं है | आप ही मेरे समर्थ स्वामी हो, मेरी ज्ञानादि गुण-सम्पदा को प्राप्त करानेवाले केवल आप ही पुष्ट-निमित्त हो । हे प्रभो ! आपके पास से ही मुझे महान् आध्यात्मिक-सम्पत्ति मिलने वाली है । आपके द्वारा ही मुझे अलौकिक-दिव्य आनन्द की अनुभूति होनेवाली है।
भक्त साधक इस प्रकार की कितनी ही आशाएँ और आकांक्षाएँ प्रभु से रखता है । परमानन्द स्वरूप और शुद्ध गुण-पर्यायरूप स्याद्वादमयी सत्ता के रसिया परमात्मा के दर्शनमात्र से भी मुमुक्षु साधकों को अपूर्व लाभ की प्राप्ति होती
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