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है । आत्मा की महान शक्तियों का भक्तात्मा को भान होता है । सचमुच ! आत्मानन्द के भोगी, आत्मस्वरूप में ही रमण करनेवाले, शुद्ध-तत्त्व विलासी हे प्रभो ! आपके दर्शनमात्र से ही भव्य जीवों की विषयसुख की भ्रान्ति नष्ट हो जाती है । अव्याबाध, स्वाभाविक, सुख का भासन-ज्ञान होत है और उसे प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है ।
जब तक यह जीव विषयसुख का अभिलाषी होता है तब तक वह विषयसुख को ही साध्य मानकर उसके साधनरूप स्त्री, धन, धान्यादि प्राप करने के लिए सतत पुरुषार्थ करता रहता है । परन्तु जब प्रभु के दर्शन से अव्याबाध सुख की अभिलाषा उसमें जागृत हो उठती है तब वह जी अव्याबाध सुख को ही अपना साध्य मानकर उसके साधनों मे यानि देव-गुरुभक्ति, तत्त्व श्रद्धा आदि की उपासना में सतत पुरुषार्थशील रहता है औ उस अव्यावाध सुख का कर्ता बनता है।
इसी प्रकार ग्राहकता, स्वामित्व, व्यापकता, भोक्तृता, कारणता और कार्यता भी अपने शुद्ध-स्वरूप की होती है । आज तक जीव विषयसुख का ही ग्राहक था, उसकी वृत्ति उसमें ही व्यापक-ओतप्रोत थी और वह भी उसी का भोक्ता था परन्तु अव्याबाध सुख के स्वामी प्रभु को देखकर अब वह स्वाभाविक सुख और उसके साधनों का ग्राहक, व्यापक-उसमें ही ओत-प्रोत और भोक्ता बन गया है ।
इतने समय तक आत्मा आठ-कर्मरूप उपाधि का उपादान-कारण और कर्म-बंधनरूप कार्य का कर्ता था परन्तु शुद्धस्वरूपी एवं निष्कर्मा वीतराग परमात्मा की पहचान होने के पश्चात् वह अपने 'शुद्ध-स्वरूप' का उपादान-कारण और 'संवर-निर्जरारूप' कार्य का कर्ता बन गया है । प्रभु के ध्यान में लीन बने हुए आत्मा को अन्य भी श्रद्धा, भासन, रमणतादि अनन्त शक्तियों का स्मरण होता है और वे आत्म शक्तियाँ परभाव को छोडकर आत्मभाव में स्थिर होती जाती है ।
अब तक जीव सातावेदनीयादि पुण्य प्रकृत्ति के उदय को, जो आत्मिक गुणों का रोधक है और तत्त्वविमुख बनानेवाला है उसे सुखरूप मानता था परन्तु अब उसे अव्याबाध स्वाभाविक सुख की श्रद्धा उत्पन्न हुई है । अब तक वह केवल शास्त्रों की बातों को ज्ञान मानता था परन्तु अब सिद्ध पद ही मेरा साध्य है । एसा यथार्थ ज्ञान उसे हुआ है ।
अब तक पुद्गल पदार्थ के रूप, रस, गंध, स्पर्श में उसकी रमणता होती थी परन्तु अब शुद्ध-स्वभाव में उसकी रमणता होने लगी अब तक उसकी दान-लाभ भोग-उपभोग और .
वीर्य लब्धियाँ भी पुद्गल अनुयायिनी बन कर प्रवृत्ति करती थी परन्तु अब वे सर्व लब्धियाँ आत्मा में सत्तारूप से 20
18.रहे हुए ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्यायों की रसिक बन गई है । परस्पर एक दूसरे गुणों को सहकार रूप दान, गुण
प्रागभावरूप लाभ, स्वगुण-पर्याय का भोग और उपभोग तथा पण्डित वीर्य संवर-निर्जरा में हेतुभूत बनकर प्रवृत्त होने
लगा है। जैसे बकरों के टोले में रहा हुआ बालसिंह स्वजातीय सिंह
को देखकर अपने सही स्वरूप -(सिंहरूप) को पहचान लेता है, उसी तरह अनादिकाल से परभाव में भटकते हुए आत्मा को प्रभु के' दर्शन से अपने शुद्ध-स्वरूप की यथार्थ पहचान होती है । इस प्रकार प्रभ की महान करुणा के प्रभाव से आत्मा की ज्ञानादि शक्तियों का आविर्भाव होता है ।
हे प्रभो ! चारित्ररूपी नौका के नाविक होने से भवसागर से पार उतारनेवाले होने से आप महानिर्यामक हैं । द्रव्य और भाव हिंसा से रहित और परम अहिंसा धर्म के उपदेष्टा होने से आप माहण हैं। आत्मा के कर्म-रोग की सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप भाव-चिकित्सा बतानेवाले होने से आप महावैद्य हैं। षट्काय के जीवों की रक्षा करनेवाले होने से तथा ज्ञानादि गुणों के भण्डार के रक्षक होने से आप महागोप हैं। भवारण्य मे भटकते हुए भव्य जीवों के आधार होने से आप परम-आधार हैं।
देवों में चन्द्र के समान निर्मल एवं सुख के सागर प्रभो ! आप ही सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि भावधर्म के दातार हैं, क्योंकि आपके उपदेश से आपके दर्शन से. भव्य जीवों को भावधर्म की प्राप्ति होती है अत : भावधर्म के दाता भी आप ही हैं ।
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