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परमात्म मिलन के सुखद क्षणों के लिए तरसता हुआ भक्त साधक प्रशान्तवाहिता के अस्खलित प्रवाह में निमग्न होकर परमात्म-मिलन का अलौकिक आनन्द अनुभव करता हैं ।
(५) पाँचवे स्तवन में श्री देवचन्द्रजी महाराज ने परमात्मा की स्याद्वादमयी स्वभावदशा का वर्णन किया है और असंग-अनुष्टान वाला योगी जिस प्रकार परमात्मा के शुद्ध द्रव्य-गुण पर्याय के चिन्तन द्वारा अपने शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय में लीन बनता है. यह संक्षेप में समझाया है ।
नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी अनेक धर्म एक ही आत्मा में एक साथ रहे हुए हैं, उनका यथार्थ स्वरुप जानने से साधक को अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की अदभुतता समझ में आती है, उसे प्रकट करने की रुचि जागृत होती है और रुचि के अनुसार तत्त्व रमणता प्राप्त होती है और अनुक्रम से शुद्ध स्वभाव प्रकट होता है।
(६) छटे स्तवन में निमित्त कारण की यथार्थता बताई है और सात नयों की अपेक्षा से प्रभुदर्शन का स्वरूप समझाया है । जब साधक शब्दनय की अपेक्षा से प्रभु के दर्शन करता है तव संग्रहनय से सत्ता में रहा हुआ उसका शुद्ध स्वभाव एवंभूतनय से प्रकट होता है ।
संग्रहनय से सव जीव सिद्ध-समान हैं । जब आत्मा अपने समस्त कर्ममल को दूर करके सिद्धत्व प्राप्त करता है, तव वह एवंभूत नय से सिद्ध कहलाता है । जब आत्मा शब्दनय से अर्थात् सिद्ध समान अपने आत्मस्वरुप को पहचान कर उसे प्रकट करने की तीव्र झंखना के साथ परमात्मा का दर्शन और जिनशासन की आराधना करता है तब वैसा सिद्ध स्वरुप प्रकट होता है ।
पर-पुदगलादि अशुभ निमित्तों का प्रभाव अरिहन्न परमात्मा और उनके नामादि के आलम्बन विना दूर नहीं होता । इस बात को मिट्टी, जल, सूर्य, उत्तरसाधक और पारसमणि के द्रष्टान्तों द्वारा स्पष्ट करके यह सिद्ध किया है कि जिनेश्वर के नामादि मोक्ष के निर्यामकपुष्ट हेतु हैं ।
(७) सातवें स्तवन में सिद्ध परमात्मा जिस अनन्तगुण के आनन्द का अनुभव करते हैं, उसका वर्णन किया गया है।
आत्मा के गुण अनन्न हैं, उनमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, अव्यावाध सुख आदि गुण मुख्य हैं । सिद्ध अवस्था में आत्मा प्रतिसमय अनन्त गुण के भिन्नभिन्न आनन्द का अनुभव करता रहता है । उनके स्वरूप का श्रवण, चिन्तन, मनन और ध्यान करने से साधक को भी वैसे आनन्द और सुख को प्राप्त करने की रुचि जागृत होती है और उसके उपाय रुप रत्नत्रयी की आराधना में तत्पर वनने की प्रेरणा मिलती है ।
(८) आटवें स्तवन में परमात्मा की सेवा के विविध स्वरूपों और प्रकारों को बताकर जिनभक्ति की विशालता वनाई है । सेवा के मुख्य दो प्रकार हैं । परमात्मा के दर्शन, वन्दन, पूजन और कीर्तन - यह द्रव्यसेवा है । उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले शुभभाव, भावसेवा है । परमात्मगुणों के आलम्वन से होने वाला ध्यान अपबाद भाव सेवा' है और उसके द्वारा प्रकट होने वाली आत्मविशुद्धि 'उत्सर्ग भावसेवा' है. अपवाद कारण है और उत्सर्ग उसका कार्य है।
उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती हुई विशुद्धि का यहाँ चढह गुणस्थानों की तरह सात प्रकार की अपवाद भावसेवा और सात प्रकार की उत्सर्ग भावसेवाओं के क्रम से वर्णन किया है, जो साधक की साधना का मापदण्ड है । अपुनर्वधक की भूमिका से लगाकर अयोगी अवस्था तक की भूमिका का पृथककरण इसमें हुआ है । सच्चा साधक जहाँ तक सिद्ध नहीं बनता, वहाँ तक वह सिद्ध परमात्मा की सेवा में सेवकभाव से सदा तत्पर रहता है।
(९) श्री सुविधिनाथ भगवान के नौंवे स्तवन में साधक को परमात्मदर्शन के फलस्वरूप आत्मदर्शन किस तरह होता है, इसका अत्यन्त रहस्यमय रीति से भावपूर्ण शब्दों में वर्णन किया गया है ।
समाधि रस से परिपूर्ण प्रभुमुद्रा निर्मल दर्पण जैसी है । भक्त-दृष्टा को प्रभुमुद्रा में प्रतिविम्वित होता हुआ अपना आत्मस्वरूप जव प्रत्यक्ष दिखाई देता है, तब वह रागद्वेषादि विभावों से निवृत्त वनकर आत्मस्वभावरूप सामायिक की साधना में प्रवृत्त होता है । उस भक्तदृष्टा की विभावरुप से काम करने वाली दानादिक सर्व आत्मशक्तियाँ स्वभाव के सन्मुख बनती हैं. जिससे क्रमशः अविद्या-मोह का अन्धकार छिन्नभिन्न हो जाता है और आत्मा के निर्मल. अखण्ड, अलिप्त स्वभाव की पहचान हो जाने से उसकी आत्मस्वरूप में सहज रमणता होती है ।
भक्त साधक प्रभु के पास उनका एक नगण्य सेवक बनकर सदा यही प्रार्थना करता रहता है कि हे प्रभो ! आपकी अचिन्त्यशक्ति के प्रभाव से मुझे आत्मस्वरूप की श्रद्धा, पहचान और रमणता प्राप्त हो । इस प्रकार प्रभु-प्रार्थना और प्रभु-मुद्रा के योग से जब साधक
आत्मा के क्षयोपशमिक भाव के गुण, परमात्मा के क्षायिक भाव के केवलज्ञानादि गुणों के साथ ध्यान द्वारा एकरुप-तन्मय बनते हैं,
तब उस साधक में अपने आत्म स्वभाव को प्रकट करने की प्रवन इच्छा शक्ति पैदा होती है । स्तवनकार महर्षि ने प्रभु के गुणोत्कीर्तन के साथ, उनके .
Vध्यान द्वारा उन्हें जो जो दिव्य अनुभव हुए हैं, उन्हें मधुर एवं भाववाही शैली में व्यक्त किये हैं । इसलिए इन स्तवनों का वार वार A गान, अर्थ चिन्नन और उसके द्वारा ध्यान करने से साधक को भी वैसे अनुभवों की प्रतीति होती है । ___ तात्त्विक भक्ति रस से परिपूर्ण इन स्तवनों का ज्यों-ज्यों अधिक से अधिक भावन होता जाता है त्यों त्यों उनमें छिपे हुए अनेक रहस्याओं का संवेदन साधक को होता जाता है ।
(१०) दसवें स्तवन में प्रभु के गुणों की अनंतता, निर्मलता और पूर्णता का वर्णन किया गया है । साथ ही प्रभु की आज्ञा का सर्वत्र सर्वदा जो एक छत्र साम्राज्य है, प्रभु तथा उनके ऐश्वर्य की कैसी महत्ता है, यह बताकर प्रभु के जाप और ध्यान का अन्तिम फल अनन्त-अव्यावाध सुख है, यह बताया गया है ।
(११) ग्यारहवें स्तवन में शुक्ल ध्यान में हेतु भूत गुण पर्यायों का चिन्नन और ध्यान करने की रीति बताते हुए कहा है कि परमात्म गुणों के गान, रमरण, ध्यान करने से आत्मस्वरुप में तन्मयता प्रकट होती है ।
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