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________________ (१२) बारहवें स्तवन में पूजा के तीन प्रकार बताये है :- पहला प्रकार द्रव्यपूजा का है । इसमें अष्टप्रकारी पूजा आदि का समावेश होता हैं । दूसरा प्रकार प्रशस्त भाव पूजा का है, जो प्रभु के अनन्त गुणों की स्तुति-स्तवना करने से होती है । तीसरा प्रकार शुद्ध भाव पूजा का है, जो अपने ज्ञानादि गुणों को प्रभु के गुणों में लीन करने से-तन्मय करने से होती है। वास्तव में जिनपूजा निज आत्मत्व की ही पूजा है । जिनपूजा के द्वारा अपने आत्मा के गुणों की प्राप्ति और पुष्टि होती है । बारहवें गुणस्थान तक के जीवों को स्व-आत्मा का ध्यान परमात्मा के गुणों के आलम्बन द्वारा ही होता है । (१३) तेरहवें स्तवन में अस्ति-भावों की और नास्तिभावों की अनन्तता बताकर स्तवनकार श्री देवचन्द्रजी महाराज ने प्रभु के निर्मल स्वभाव का ध्यान करने वाला अपने उस प्रकार के शुद्ध स्वभाव को अवश्य प्राप्त करता है, ऐसा बताया है । (१४) चउदहवें स्तवन में श्री देवचन्द्रजी महाराज ने 'जिन पडिमा जिन सारीखी' इस शास्त्रवचन की सिद्धि, उसकी परम उपकारता बताते हुए की है । जिनमूर्ति को अमृत का मेघ, जांगुलि मंत्र, रत्नत्रयी की माला और आत्मध्यान के श्रेष्ठ साधन के रुप में बताई है । सचमुच ! जिनमूर्ति के दर्शन से हमारा हृदय हर्ष से पुलकित बनता है, अशुभ आस्रवों का निरोध होता है, संवर की अभिवृद्धि होती है और पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है, ऐसा कहा है। (१५) पन्द्रहवें स्तवन में समापत्ति-अथवा आत्मा और परमात्मा का एकत्व भावन किस प्रकार होता है इसका अद्भुत और रहस्यपूर्ण शैली में वर्णन किया है । इसके साथ ही सामान्य और विशेष खभाव के लक्षण भी बताये हैं । ध्यान और समाधि दशा की भूमिका में सामान्य स्वभाव को प्रधानता देने से शुद्ध आत्म स्वरुप का ध्यान निश्चलरुप से होता है और व्यवहार की भूमिका में विशेष स्वभाव को प्रधानता देने से विनय सेवाभक्ति, संयम आदि सद्गुणों की निरन्तर अभिवृद्धि होती है । उचित व्यवहार के पालन से चित्त की निर्मलता और स्थिरता प्राप्त हो जाने के बाद ही शुद्ध निश्चय नय से परमात्मतुल्य निज शुद्धात्मस्वरूप का ध्यान हो सकता है। ___मोक्षार्थी साधकों को सबसे पहले अपनी साधना के मार्ग में वास्तविक सिद्धि प्राप्त करने के लिए शुद्ध व्यवहाररुप प्रभुपूजा, भक्ति, व्रत, नियम, तप, जप, संयम आदि सदनुष्टानों का अहर्निश सेवन करना चाहिए। शुद्ध व्यवहार के वास्तविक परिपालन द्वारा चित्त की शुद्धि होने पर ध्यान की वास्तविक योग्यता-भूमिका प्राप्त होती है । तत्पश्चात् ज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार क्रमशः उसमें आगे बढ़ा जा सकता है । निश्चल, निर्मल, निर्विकल्प आत्मस्वरूप का ध्यान शुद्ध व्यवहार के पालनपूर्वक ध्यान के सतत अभ्यास से साध्य है, आदि वातों का निर्देश इस स्तवन में हुआ है । (१६) सोलहवें स्तवन में समवसरण और जिनप्रतिमा की महान उपकारकता का वर्णन है । जिन प्रतिमा में कार्य रूप में अरिहन्तपन और सिद्धत्व किस किस नय से रहा हुआ है, साथ ही जिन प्रतिमा साक्षात् जिनेश्वर की तरह भक्त को किस-किस और कितने नय से फलदायी बनती है, यह समझाया गया है । तदुपरान्त स्तवनकार श्री देवचन्द्रजी महाराज ने नामादि चार निक्षेपों की परस्पर कार्यकारकना है, यह भी बताया है । (१७) सत्रहवें स्तवन में जिनेश्वर परमात्मा की देशना की महत्ता बताई है । परमोपकारी परमात्मा अपनी देशना में सर्वद्रव्यों के गुण-पर्याय की अनन्तता और आत्मस्वभाव की अगाधता का नय, गम, भंग निक्षेप तथा हेय, उपादेय आदि के पृथक्करण पूर्वक सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है । प्रभु की देशना कितनी गम्भीर और कितनी प्रभाविक है, यह इस स्तवन में बताया गया है । (१८) अटारहवें स्तवन में उपादान आदि कारणों का स्वरुप समझाकर उन सब कारणों में निमित्त कारण की प्रधानता क्यों है, यह बताया गया है। (१९) उन्नीसवें स्तवन में षटकारक-जो आत्माकी छह विशिष्ट शक्तियाँ है, उसका स्वरूप समझाया गया है । अनादिकाल से संसारी आत्मा का षटकारक चक्र बाधक रूप में परिणत हो रहा है, उसे परमात्मभक्ति - तथा ध्यानादि द्वारा किस प्रकार साधक रुप में परिवर्तित किया जा सकता है, उसके उपाय इसमें बताये गये हैं। (२०) बीसवें स्तवन में पूर्वोक्त छहों कारकों के लक्षण बताये हैं और पुष्ट निमित्त कारणरुप श्री जिनेश्वर परमात्मा के आलम्बन द्वारा ही आत्मा की उपादान शक्ति प्रकट होती @ S , है, यह बात उदाहरण और युक्तियों से सिद्ध की है। (२१) इक्कीसवें स्तवन में श्री जिनेश्वर परमात्मा की सेवा की वर्षाऋतु की विविध घटनाओं के साथ तुलना करके प्रभुसेवा और प्रभुदर्शन के माहात्म्य को अद्भुत औरO P रोमांचक शैली में प्रस्तुत किया है । (२२) बावीसवें स्तवन में प्रशस्त राग स्वरुप भक्ति का प्रभाव, ... राजीमती की अनुप्रेक्षा तथा उत्तम पुरुषों की संगति का फल कैसा होता है, इत्यादि बातें बतलायी गई हैं । (२३) तेवीसवें स्तवन में अरिहंत परमात्मा श्री पार्श्वनाथ भगवान् शुद्धता, एकता और तीक्ष्णता द्वारा किस तरह मोहशत्रु को जीतकर विजय प्राप्त करते हैं, यह बताया है और शुद्धता, एकता तथा तीक्ष्णता किसे कहते हैं, यह विविध व्याख्याओं द्वारा समझाया है । (२४) चौवीसवें स्तवन में आत्मा की गर्हा और दीनतापूर्वक प्रभु की प्रार्थना की गई है. जिसका एकाग्रचित्त से गान करने से, रटन करने से भावुक आत्मा भावविभोर बनकर भक्तिरस में तल्लीन हो जाता है । वह अपने हृदय की भव्य भावना को प्रभु के मन्दिर के सामने प्रकट करता है । इस प्रकार चौवीसों जिनेश्वर भगवंतो के अद्भुत गुणों की और अचिन्त्य महिमा की स्तुति कर भक्ति का तात्त्विक मार्ग बताया है । NO. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
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