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________________ जिन भक्ति की महिमा आ. श्री कलापूर्णसूरिजी जिनभक्ति मुक्ति का प्रधान अंग है । मोक्ष प्राप्ति का सरल. सचोट और सुरक्षित साधन यदि कोई है तो वह परमात्मभक्ति है । जिनेश्वर परमात्मा की सेवा-पूजा- भक्ति करने वाला भक्त भी अनुक्रम से जिन-भगवान् बन जाता है । ___भक्ति की यह स्वीकृति है, 'तुम जिसकी भाव से भक्ति करोगे वैसे ही तुम वन जाओगे ।' भगवान की भक्ति करनेवाला भक्त स्वयं भगवान बनता है । भक्ति निष्काम मोक्षलक्ष्यी होनी चाहिए । सव आगम-शास्त्रों का सार भक्तियोग है । परमात्मा की स्तवना-पूजा-सेवा करने से चित्त की निर्मलता होती है. परमात्मा के प्रति प्रीति और भक्ति बढ़ती है । उसके बढ़ने से साधक क्रमश: ध्यानयोग की साधना में सरलता से प्रवेश कर उसमें प्रगति प्राप्त करता है । पूजाकोटिसमं स्तोत्रं, स्तोत्रकोटिसमो जपः । जपकोटिसमं ध्यान, ध्यानकोटिसमो लयः ।। पूजा से स्तोत्र का, स्तोत्र से जप का, जप से ध्यान का और ध्यान से लय का क्रमशः करोड़ गुण अधिक फल कहा है । स्तोत्र-स्तुति पूर्वक जप या ध्यान करने से विशेष एकाग्रता पैदा होती है । अनुष्टान की अपेक्षा से पूजा में प्रीति-अनुष्टान, रतोत्र में भक्ति-अनुष्टान, जप या ध्यान में वचन अनुष्टान और लय में असंग अनुष्टान का प्राधान्य होता है । उक्त चारों अनुष्टानों के निरन्तर अभ्यास के द्वारा ही आत्मा परमात्मा वनता है और मुक्ति-पद को प्राप्त करता है । प्राथमिक कर्तव्य रूप गिने जाने वाले देवदर्शन. प्रभुपूजा, मंत्रजाप और अभक्ष्यत्याग आदि नियमों के ग्रहण-पालन के पीछे भी यही शुभ उद्देश्य रहा हुआ है कि उन देवदर्शन आदि के द्वारा जीवों की योग्यता का विकास हो, उनमें परमात्मा एवं सद्गुरु आदि पूज्य तत्त्वों के प्रति अंतरंग प्रीति और अन्तरंग भक्ति उत्पन्न हो । प्रीति मूलभूत वस्तु है । प्रीति के बिना भक्ति प्रकट नहीं होती और इन दोनों के विना शास्त्र के वचनों के प्रति आदर-बहुमान प्रकट नहीं होता । शास्त्रवचनों के पालन का सामर्थ्य भी प्रकट नहीं होता और शास्त्रोक्त अनुष्टान के आसेवन के बिना असंगदशा प्राप्त नहीं होनी । असंगदशा के विना कर्मक्षय नहीं होता । कर्मक्षय के बिना केवलज्ञान और मोक्ष नहीं मिलते । अत : प्रत्येक मुमुक्षु को सबसे पहले आराध्य तत्त्वों के प्रति प्राति और भक्ति उत्पन्न करने वाले अनुष्टानों का आदरपूर्वक सतत सेवन करना चाहिए । परम गीतार्थ ज्ञानी महर्षियों ने इस सत्य को समझाते हुए कई स्तोत्रों की रचना की है । अपने स्वयं के अनुभव को शब्द-देह देकर भक्तियोग का अतिशय महत्त्व बताया है । जैन दर्शन में आवश्यक सूत्रों के रूप में प्रसिद्ध 'लोगस्स' और 'नमुत्थुणं' आदि सूत्रों में तथा स्तोत्रों में श्री गणधर भगवंतों ने जिनभक्ति की जो अपार महिमा गायी है और परमात्मा के , प्रति जो भक्तिभर हृदय से प्रार्थना की है. वह निम्नोक्त उदाहरण में भी समझी जा सकती है । उन्होंने लोगस्ससूत्र-नामस्तव' में - चौवीसों जिनेश्वर भगवंतों का कीर्तन, वन्दन, पूजन करके उनसे परम आरोग्य वोधिलाभ और उत्तम समाधि की याचना की है। इन्हीं गणधर भगवन्तों ने 'नमुत्थुणं-शक्रस्तव' में भावजिन और द्रव्य-जिन के अदभुत गुणों का विशिष्ट रीति से वर्णन करते हुए श्री जिनेश्वर भगवंतों की भावभरी स्तुति की है । साथ ही 'चैत्यस्तव' में स्थापना-जिन (जिन प्रतिमा) के वन्दन, पूजन, सत्कारसन्मान के लिए कायोत्सर्ग करने का विधान किया है । तदुपरान्त 'श्रुतस्तव में जिनागम-जिनवचन की स्तुति की गई है और सिद्ध-स्तव में भावजिन और द्रव्य-जिन के अदभुत गुणों का विशिष्ट रीति से वर्णन करते हुए श्री जिनेश्वर भगवंतों की भावभरी स्तुति की है । उक्त सव सूत्रों का प्रतिक्रमण, देववन्दन, चैत्यवन्दन आदि क्रियाओं में अहर्निश उपयोग होता है । चौदह पूर्वधर श्री भद्रवाहुस्वामी भी पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे महान यशस्वी श्री पार्श्वनाथ प्रभु ! इस प्रकार मैंने भक्तिपूर्ण हृदय से आपकी स्तुति की है, तो हे देवाधिदेव ! उसके फलरुप में मुझे भवभव में वोधिरत्न देवें । 'कल्याण मन्दिर' स्तोत्र में श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरीश्वर महाराज प्रभु के नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं :-'अचिन्त्य महिमावंत हे भगवान् ! आपकी स्तुनि तो क्या, आपके नाम के स्मरण मात्र से भी भीषण भवभ्रमण से जगत के जीवों का संरक्षण होता है । इस प्रकार अनेक साधक महर्षियों ने परमात्म-प्रीति और परमात्म-भक्ति की अपूर्व महिमा गायी है और आत्मलक्षी सर्व साधनाओं की सफलता में परमात्म भक्ति और उनकी कृपा को ही मुख्य स्थान दिया है ।। सामान्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती रहे इसलिए गुजराती, हिन्दी आदि लोक भाषा में जिनभक्ति की अचिन्य महिमा का वर्णन करने वाली कई कृतियाँ ज्ञानी महर्षियों ने बनाई हैं । उनमें योगीराज श्री आनंदघनजी, उपाध्यायश्री यशोविजयजी, श्रीमद देवचन्द्रजी. पण्डितश्री ज्ञानविमलसूरिजी आदि महात्माओं की कृतियाँ विपुल संख्या में उपलब्ध हैं, जिनका गान-पान करके भावुक आत्मा परमात्मा की प्रीति और परमात्मा की भक्ति के रस में लीन होकर आज भी अलौकिक आनन्द की अनुभूति करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
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