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ग्रन्थार्थान प्रगुणीकरोति सुकविर्यत्नेन तेषां प्रथामातन्वन्नि कृपाकटाक्षलहरीलावण्यन : सज्जनाः । माकन्दद्रुममनरी वितनुते चित्रा मधुश्रीस्तत : सौभाग्यं प्रथयन्ति पञ्चमचमत्कारेण पुरकोकिला : ।।४७ ।।
पाथोद : पद्यवन्धेविपुलरसभरं वर्षति ग्रन्थकर्ता SKHE
प्रेम्णां पूरैस्तु चेत :सर इह सुहृदां प्लाव्यते वेगवद्भिः । त्रुट्यन्ति स्वान्तवन्धा : पुनरसमगणद्वेषिणां दुर्जनानां
चित्रं भावज्ञनेत्रान्प्रणयरसवशान्नि सरत्यथुनीरम् ।।५४ ।। उपरोक्त श्लोक पूज्यश्री को यथार्थ रुपसे लागू होते हैं ।
इन स्नबनों का अभ्यास करते समय उनके स्वोपज्ञ वालावबोध तथा परमतत्त्वकी उपासना' जैसे अनेक ग्रंथों का उपयोग किया । स्वोपज्ञ वालाववोध में उन्होंने आगम और अन्य कई सुंदर ग्रंथोंमें से संस्कृत-प्राकृत अवतरण लिए हैं । उनका अर्थ साथमें देने का हमने प्रयास किया है ।
इन स्तवनों के अध्ययन वाट ऐसी भावना उत्पन्न हुई कि, 'देवचन्द्रजी चौवीसी का ऐसा ग्रंथ प्रकाशित करें कि जिसे जिज्ञासु साधक सरलतासे समज पायें | अत एव प्रस्तुत ग्रंथमें स्तवनों के अर्थ और सार पू. कलापूर्णसूरीश्वरजी कृत 'परमतत्त्वकी उपासना' में से लिये हैं । हिन्दी अनुवाद भी पं. वसंतीलालजी नलवाया रतलामवाले के किये हुए ‘परमतत्त्व की उपासना के भाषांतर से लिया है, जिस पुस्तक को अवंती पार्थनाथ तत्त्वज्ञान प्रचारक केन्द्र ने प्रकाशित किया है ।
इस पुस्तकमें जो वालावबोध है वह स्वोपज्ञ है | शुद्धिके लिये 'कोवा वि. ज्ञानभंडार की पुरानी हस्तलिखित प्रतों का उपयोग किया है । बालाववोध के अभ्याससे पदार्थों का बोध सरलतासे होता है ।
जैन परंपरामें सचित्र प्राचीन ग्रंथो की प्रथा मिलती है । इससे भावना हुई की प्राचीन चित्रों, पट, हांसिया. फुलिकाएँ आदि का यथार्थ उपयोग कर ‘देवचन्द्रजी चौवीसी' को सचित्र प्रकाशित करें । इस कार्यमें अन्य संस्थाओं और व्यक्तियों के सहयोग से सफलता मिली है ।
स्तवनों की गाथाएँ सुवर्णपट के उपर लाल, हरे और नीले रंगों से लिखवाई हैं । तत्पश्चात वे गाथाओं को हांसिया और वोर्डरों से सजाया गया है ।
तदुपरांत उसमें जैन संग्रहालयों एव व्यक्तिगत संग्रहमें से प्राप्त हुए चित्रों और पटों का समावेश भी किया है । आशा है कि जैन संस्कृति की प्राचीन चित्रकला का इस पुस्तक में समावेश, स्तवनो के अध्ययन के समय भाव उत्पत्ति में सहाय करेगा । हम वे संग्रहालयों और व्यक्तियों के उनके सहकार बदल आभारी है।
इस पुस्तक के प्रकाशन में प.पू. आ.भ. श्री कलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा., पू.पं.श्री कल्पतरुविजयजी म.सा. तथा पू.प.श्री कीर्तिचन्द्रविजयजी म.सा. से प्रेरणा मिलती रही है । अत : मैं उनका उपकार कदापि भूल नहीं सकता।
प.पू.आ.भ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी के अनुग्रह से हम कोवा के ज्ञानभंडार और संग्रहालय में रखे हुए अदभुत प्राचीन चित्रों और संग्रह पाने में सफल हुए, जिसके लिये हमें संस्था के माननीय ट्रस्टीगण तथा श्री आशितभाई का पूर्ण सहकार प्राप्त हुआ । पू. श्री अजयसागरजी म.सा. का भी सुंदर मार्गदर्शन मिला । इन सभी व्यक्तिओं के सहयोग से हमारा काम सरल हुआ । उनके उपकारों की स्मृति सदैव मुझे रहेगी।
स्वोपज्ञ वालावबोध में जहाँ जहाँ संस्कृत-प्राकृत अवतरण दिये हैं, उन सभी अवतरण और उनके अर्थघटन में प.पू.आ.भ. श्री सोमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.ने उपयोगी सूचनाएँ की हैं । हम उनके बहुत ऋणी हैं ।
इस ग्रंथ मे जाने माने और आध्यात्मिक चित्रकार श्री उदयराज गडनीसने मूल गाथाओं का सुंदरता से आलेखन किया है।
पं. श्री महेन्द्रभाई वी. जैन द्वारा इस पुस्तक का संपादन कार्य निष्पन्न हुआ है । उन्होने संस्कृत-प्राकृत अवतरणों को ग्रंथोमें से लेकर, उनकी शुद्धि तथा अर्थ भी किया है ।
पं. श्री चंपकलाल पी. महेताने शुरुआत से ही साथमें रहकर कोवा' वगैरह जगहों पर जाकर चित्रों का संग्रह करने में । सहाय की है तथा इस पुरतक के संपादन के सभी कार्यों में उनका अति विशिष्ट योगदान रहा है ।
श्रीमती सुजाता कापडियाने प्रतशुद्धि (प्रूफ रिडींग) में सहायता की है ।
एल. डी. (लालभाई दलपतभाई) ईन्स्टीट्यूटमें भी विविध प्रकार का बहुत बड़ा संग्रह है । पं. जितेन्द्रभाई वी. शाह तथा श्री प्रीतिवहन का सुंदर पटों, चित्रों आदि की प्राप्ति में सहयोग मिला । उनकी यह उदारता के लिए उन्हें धन्यवाद ।
श्री महावीर स्वामी जैन दहेरासर-अमदावाद से तथा श्री वीरविजयजी म.सा. के उपाश्रय से भी श्री चारुचंद्रभाई तथा श्री दीपकभाई के सहयोग से पट प्राप्त हुए है।
श्रीमती ईन्दुबहन जैन की ओरसे उनके संग्रहमें से सुंदर चित्र उपलब्ध हुए हैं । डॉ. सिद्धार्थ भणसाली ने भी अपने सुंदर संग्रहमें से चित्र और पट दिये है । श्री प्रफुलभाई तथा श्रीमती शिल्पाबहन शाहने भी अपने सुंदर संग्रहमें से कई चित्र और पट दिये हैं । धी एशियाटीक सोसायटी ओफ मुंबईने भी हमें चित्र देकर हमारी सहायता की है।
महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'न्यु डॉक्युमेन्ट्स ऑफ जैन पेइन्टींग्स में से भी चित्र हमनें इस पुस्तकमें लिए हैं । मैं इन सभी का अंत करणपूर्वक उपकार मानता हूँ और उनकी हार्दिक अनुमोदना करता हूँ |
- प्रेमल कापडिया
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