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प्रकाशकीय... इस संसार के प्रत्येक जीवात्मा शाश्वत और संपूर्ण सुख की इच्छा रखते हैं । इस प्रकार का सुख मोक्ष के सिवाय अन्य कहींसे मिलना संभव नहीं है । परन्तु अध्यात्म रसिक जीव ऐसे सुख का आंशिक अनुभव निश्चित कर सकते हैं ।
मुझे भी अध्यात्ममें बहुत रुचि थी । आनंदघनजीके स्तवन और पदों का अभ्यास जारी था । प्रभुकी प्रभुता और उनकी गुणसंपदा जानने और समझने की बरसों से अति जिज्ञासा थी । परमात्मा की कृपा से ऐसा योग अचानक ही प्राप्त हुआ । एक धन्य दिन, अध्यात्मयोगी आचार्यदेव श्रीमद विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के वंदनार्थ मैं लोनावाला गया था और उनके प्रथम दर्शन के समय ही पूज्यश्रीने 'देवचन्द्रजी चौवीसी" का अभ्यास करने की सलाह दी।
प्रारम्भ में यह अभ्यास खूव ही गहन लगा परन्तु बार बार पू. कलापूर्णसूरीश्वरजी के सानिध्य से, उनकी कृपादृष्टि के कारण धीरे धीरे स्तवनों के अर्थ और रहस्य खुलने लगे । पूज्यश्री को एक गाथा का अर्थ पूछने पर वे आरंभ से अंत तक, पूरे स्तवन का अर्थ सविस्तृत समझाते थे । इससे सविशेष रस जागने पर. उतरोत्तर इस चौवीसी के गान में आनंद बढ़ता गया और आराधना में प्रगति होने लगी ।
पू. देवचन्द्रजी अपने स्तवनों द्वारा शुद्ध स्वरुप के ज्ञान, प्रभु आलंबन और आत्मविकासलक्षी मार्ग अदभुत रीत से प्रकाशित करते हैं । उनके जिनभक्ति से सभर स्तवन रसीली भक्ति', 'उपादान-निमित्त कारण', 'निश्चय-व्यवहार', 'आत्मा और पुदगल', 'द्रव्य-गुण-पर्याय', 'अपवाद-उत्सर्ग सेवा', 'कारण-कार्य', 'प्रभु प्रभुताकी अनंतना', 'षट्कारक', 'अव्यावाध सुख', 'सामान्य-विशेष स्वभाव', 'अस्ति नास्ति स्वभाव', 'प्रशस्त और शुद्ध भावरूप पूजा' और 'नि:संगता' जैसे अनेक आध्यात्मिक गहन तत्त्वों और द्रव्यानुयोग को अलौकिकता से प्रकट करते हैं ।
पू. देवचन्द्रजी के स्तवन अत्यंत हृदयवेधक हैं और जैसे जैसे इन स्तवनों का स्मरण मनन और चिंतन होता है वैसे वैसे प्रसन्नता और हर्ष का अनुभव होता है । जब भी चैत्यवंदन आदि क्रियाओमें इन स्तवनों की मार्मिक गाथाओं का उपयोगपूर्वक गान होता है तब अति भावोल्लास जागृत होता है । हृदय पुलकित होता है ।
परमात्मा की अतुल, अद्वितीय गुणसंपदा का यथार्थ वर्णन पूज्यश्रीने स्तवनो रुपी भक्तिगंगा द्वारा अंजलि भर भर के वहाया है । पूज्यश्री के निम्नलिखित उद्गारों का गान करते समय कौन आनंद और हर्षोल्लास नहीं अनुभवेगा !
माहरी शुद्ध सत्तातणी पूर्णता, तेहनो हेतु प्रभु तुं ही साचो । 'देवचन्द्र' स्तव्यो, मुनिगणे अनुभव्यो, तत्त्व भक्ते भविक सकल राचो ।।अहो० ।। दीटो सुविधि जिणंद, समाधिरसे भर्यो, हो लाल ।।स०।। भारयो आत्म स्वरुप, अनादिनो वीसर्यो हो लाल ।।अ०।। सकल विभाव उपाधि, थको मन ओसर्यो, हो लाल ।।थ० ।। सत्ता साधन मार्ग, भणी ए संचर्यो, हो लाल ।। भणी०।।१।। प्रभु छो त्रिभुवन नाथ, दास हु ताहरो, हो लाल ।।दा० ।। करुणानिधि अभिलाष, अछे मुझ ए खरो, हो लाल ।।अ०।। आतम वस्तु स्वभाव, सदा मुज सांभरो, हो लाल ।।स० ।। भासन वासन एह, चरण ध्याने धरो, हो लाल ।।च०।।५।। सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी । वीजुं कांई न मागुं स्वामी, अही करो मुझ कामजी ।। शीतल० ।।१०।। तहवि सत्ता गुणे जीव ए निर्मलो, अन्य संश्लेष जिम फिटक नवि सामलो । जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, भाव तादात्म्यमां माहरूं ते नहीं ।।७।। तेणे मुज आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी सम्पदा सकल मुज संपजे । तेणे मनमंदिरे धर्मप्रभु ध्याइये, परम देवचन्द्र निज सिद्धि सुख पाइए ।।१०।। आज कृतपुण्य धन्य दीह मारो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो । देवचन्द्र स्वामी त्रेवीसमो वंदियो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो ।।सहज०।।८।। तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमा एटलं सुजस लीजे ।
दास अवगुण भर्यो जाणी पोतातणो. दयानिधि दीन पर दया कीजे ||तार० ।।१।। परमात्मा और स्वआत्म में सत्ता से जीवत्व में समानता है, ऐसी श्रद्धा होते ही साधक स्वआत्मसंपत्ति को पहचान कर, उसे बहुमानपूर्वक प्रभुकी पूर्ण, शुद्ध, गुणपर्यायमयी प्रभुता समान बनाने के लिये रुचिवंत बनता है ।
ग्रंथकार महात्माने ऐसे तत्त्वदृष्टिरुपी पुष्पों को स्तवनरुपी मालामें पिरो कर ‘परमतत्त्व की उपासना के ईच्छुक पर महान उपकार किया है | पूज्यश्री की कवित्व शक्ति भी वचनातीत होने से स्तवन विशेष रूप से हृदयंगम होते हैं ।
महोपाध्याय यशोविजयजी लिखित 'अध्यात्मसार' में कहा है कि
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