SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ '३५स्थ-ध्यान'मा नि-भूतिना ध्यानयी स्थापना-अरित' साथे मेडता सथाय छे. 'पिंजस्थ-ध्यान' व 'द्रव्य-मरिहत'नी साथे मेतो सपाय छे. '३पातीत-ध्यान' व 'भाव-अरिहंत' साथे मेहता सघाय छे. 'मरिहंतना-ध्यान'मां तन्मय बनेको मात्मा आगमथी भाव-मरिहत' वाय छे. 'ता-भावना थी ४ अमेह-प्रधान सिद्ध थाय छ भने अमेह-शिधान' ४ तात्त्वि भाव-नभ२४ार' '५२मति' छ. તેના સતત અભ્યાસથી આત્મા અને પરમાત્મા વચ્ચેનું અંતર-ભેદ દૂર થઈ જાય છે. સર્વ કોઈ મુમુક્ષુ આત્માઓએ પાસે રહેલા અન્તર્યામી પ્રભુ સાથે મળવાનો અર્થાત્ આત્મ-સ્વરૂપમાં તન્મયતા સાધવાનો અભ્યાસ અવશ્ય કરવો જોઈએ. એ જ સર્વ યોગોનો સાર છે. એ જ સર્વ આગમોનું પરમ-રહસ્ય છે. पन्द्रहवें स्तवन का सार... इस स्तवन में सामान्य स्वभाव और विशेष स्वभाव के लक्षण बताकर अध्यात्म-साधना में उनका उपयोग करने की चाबी (रीति) बतलाई गई है । (१) सामान्य स्वभाव : सामान्य स्वभाव पदार्थ-द्रव्य का मूल धर्म है । वह सदा निरावरण होता है, उसे कभी कर्मों का स्पर्श नहीं होता । सामान्य स्वभाव सब द्रव्यों में होता है । उसका लक्षण है- नित्य, निरवयव, एक, अक्रिय और सर्वगत । उदाहरण के लिए नित्यता सामान्य स्वभाव है, क्योंकि वह नित्यता सदा होती हैं, वह एक ही है, उसके प्रदेश रूप अवयव नहीं, वह जानने आदि की क्रिया नहीं करती और वह नित्यत्व सर्व द्रव्य में, प्रदेश में, गुण में और पर्याय में व्यापक होती है अत: उसे सामान्य स्वभाव कहते हैं । इसी तरह अस्तिता सदा होती है, वह एक ही है, उसके अवयव नहीं हैं और वह सर्व में व्यापक है अत: अस्तिता सामान्य स्वभाव है । (२) विशेष स्वभाव : जो अनित्य, सावयव, अनेक. सक्रिय और असर्वगत हो वह विशेष स्वभाव है । जैसे ज्ञानादि गुण ।। सब पदार्थ सामान्य विशेष स्वभावमय होते हैं । द्रव्य में सामान्य स्वभाव न होने पर उसकी वस्तु-सत्ता ही घटित नहीं हो सकती और विशेष स्वभाव न होने पर कार्य नहीं हो सकता अर्थात् पर्याय नहीं हो सकती । अतः सामान्य स्वभाव के बिना विशेष स्वभाव नहीं रह सकता और विशेष स्वभाव के बिना सामान्य स्वभाव नहीं रह सकता । अतः आत्मसाधना में भी उन दोनों की समान उपयोगिता है । नयभेद से उनका विवेक करने और भूमिका के अनुसार उनका प्रयोग करने से वे बहुत लाभदायक बनते हैं । ध्यान दशा में सामान्य स्वभाव का प्रयोग : साधक अपने केवलज्ञानादि विशेष गुणों को, जो कर्म से आवृत हैं उन्हें निरावरण (प्रकट) करने के लिए पूर्ण शुद्धगुणी परमात्मा की स्तुति, भक्ति और रूपस्थ-ध्यानादि द्वारा उनके स्वरूप में एकाग्र (तन्मय) बनकर अपनी आत्मसत्ता भी 'पूर्ण शुद्ध गुण-पर्यायमयी है' ऐसी भावना भाता है । इसी तरह, जारिस सिद्धसहावो, तारिस भावो हु सबजीयाणं । (सिद्धप्राभृत) अर्थ : जैसा परमात्मा का शुद्धस्वभाव है वैसा ही सर्व जीवों की आत्मा का भी स्वभाव है। क्योकि, एगे आया । (सुयगडांग) अर्थ : प्रत्येक जीव की जीवत्व जाति एक ही है, वह कदापि नहीं बदलती । तथा, जीवो जीवत्वास्थ ः सिद्धः । अर्थ : सिद्धता ही जीव का अपना स्वरूप है । ज्ञानादि विशेष स्वभाव कर्म से आवृत्त होते हुए भी सामान्य स्वभाव (शुद्ध आत्मसत्ता) स्फटिकरत्न की तरह निरावरण है । ऐसी शुद्ध भावना से भावित हुआ आत्मा जब अपने आत्मस्वरूप का बार-बार स्मरण करता है, ध्यान करता है, तब उसे स्वरूप-रमणता प्राप्त होती है और आत्मानुभव के अमृत का आस्वादन करता हुआ आत्मा स्वरूप में मग्न बनता है । व्यवहार भूमिका में विशेष स्वभाव का प्रयोग : साधक को व्यवहार दशा में पर-पुद्गल के योग से रागद्वेष अथवा विषय-कषाय से अपनी आत्मा को लिप्त हुआ जानकर उसे अशुद्ध समझना चाहिए । मैं पुद्गल का भोगी बनकर उसमें ही आसक्त बनता हूँ, जड़ पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना करके राग-द्वेष करता हूँ, सब पर-पदार्थों को अपना समझता हूँ, उन सब में कर्तृत्व का अभिमान करता हूँ । इस प्रकार पर-पदार्थों में मोहित बनकर नयेनये अशुभ कर्मों का बंध करके चार-गतिरूप संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ। पर-पुद्गल पदार्थों की आसक्ति से मेरी आत्मा में राग-द्वेष की परिणति होती रहती है । जैसे स्फटिक रत्न के पीछे रखे हए नीले या लाल वस्त्र के योग से स्फटिक भी नीला या लाल दिखाई पड़ता है परन्तु उस वस्त्र को हटा लेने से वह स्फटिक मूलत : श्वेत, उज्वल स्वरूपवाला दिखाई देने लगता है। उसी तरह स्फटिक के तुल्य स्वच्छ, निर्मल मेरी आत्मा में से राग-द्वेष की मलिन परिणति को दूर हटा देने का पुरुषार्थ करने से आत्मा के शुद्ध स्वरूप को देखा जा सकता है, जाना जा सकता है और अनुभव किया जा सकता है । पर-पुद्गलानुयायी बनी आत्मशक्तियों को अन्य शुभ आलम्बन के बिना स्वयं आत्मस्वरूप में नहीं जोड़ा जा सकता । इसलिए मुझे सर्वप्रथम जिनके सर्व विशेष स्वभाव (ज्ञानादि गुण) पूर्ण शुद्ध रूप में प्रकटित हैं, उन मेरे सजातीय अरिहन्त परमात्मा के साथ प्रोति, भक्ति, आज्ञापालन और ध्यानादि द्वारा आत्म-शक्तियों को जोड़ना चाहिए जिससे परमात्म-स्वरूप में तन्मय बनी हुई मेरी ज्ञानादि शक्तियाँ, आत्मस्वरूप को यथार्थ रीति से पहचानकर उसमें तन्मय बन सकें । इस प्रकार विचारणा करके साधक परमात्मा की द्रव्यपूजा, भावपूजा, भक्ति और आज्ञापालन आदि करते करते जब ध्यानावस्था में आकर www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only ૨૯૮
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy