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निश्चल-ध्यान को सिद्ध करने का प्रयास करता है तब वह आत्मा निश्चल, निर्मल और निर्विकल्प आत्मस्वरूप का अनुभव कर सकता है । इस प्रकार नयसापेक्ष भूमिकाभेद से सामान्य और विशेष स्वभाव की मुख्यता और गौणता होती है। उसका विवेक अनुभवी सद्-गुरुवर्यों के पास से प्राप्तकर साधक आत्माओं को आध्यात्मिक साधना में उसका प्रयोग करना चाहिए ।
ज्ञानसार अष्टक में भी पूर्वोक्त विचारणा के लिए कहा है कि - अलिप्तो निश्चयेनात्मा लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्यलिप्त्या ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ।।
अर्थ : निश्चयनय की दृष्टि से सर्व जीवात्मा कर्म से अलिप्त हैं और व्यवहारनय की दृष्टि से सर्व जीवात्मा कर्म से लिप्त हैं । सम्यग्ज्ञानी अलिप्त-दृष्टि से शुद्ध होता है और क्रियावान् लिप्त-दृष्टि से शुद्ध बनता है । साधक के लिए साधना में दोनों दृष्टियों की समान आवश्यकता है तथापि भूमिका के भेद से जब एक की मुख्यता होती है तब दूसरी की गौणता हो जाती है, परन्तु इससे इन दोनों की शक्तियों में कोई न्यूनाधिकता नहीं होती । अपनी अपनी भूमिका में दोनों की प्रधानता होती है अत : दोनों की शक्ति एक सरीखी होती है ।।
अध्यात्म-साधना में महान् उपयोगी परा-भक्ति (अरिहन्त परमात्मा की शुद्ध भावपूजा) का रहस्य तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का निर्देश इस प्रकार किया गया है -
प्रथम गाथा में 'धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाइए, आपणो आतमा तेहवो भावीए'- इस पंक्ति के द्वारा परा-भक्ति के प्रथम सोपान के रूप में शुद्धधर्म की स्तुति और परमात्मा-प्रभु के साथ तुल्यता-भावन करने की सूचना की गई है । 'जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी'- इस पंक्ति के द्वारा प्रभु के साथ एकता-तन्मयता साधने की सूचना है । प्रभु के साथ एकमेक-तन्मय बनने की रुचि सम्यग्दर्शन है, उसके उपायों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तन्मयता का अनुभव सम्यक्चारित्र है । पराभक्ति, समाधि, मग्नता आदि पर्यायवाची शब्द हैं । पदस्थ-ध्यान में जापादि द्वारा नाम-अरिहन्त के साथ एकता सिद्ध की जाती है । रूपस्थ-ध्यान में जिनमूर्ति के ध्यान से स्थापना-अरिहन्त' के साथ एकता साधी जाती है । पिण्डस्थ-ध्यान के द्वारा 'द्रव्य-अरिहन्त' के साथ एकता सिद्ध की जाती है । रूपातीत-ध्यान के द्वारा 'भाव-अरिहन्त' के साथ एकता स्थापित की जाती है । अरिहन्त के ध्यान में तन्मय बना हुआ आत्मा आगम से ‘भाव-अरिहन्त' कहा जाता है | एकता-भावना से ही अभेद-प्रणिधान सिद्ध होता है और अभेद-प्रणिधान ही तात्विक भाव-नमस्कार या परा-भक्ति है । उसके सतत अभ्यास से आत्मा ओर परमात्मा के बीच का अन्तर दूर हो जाता है । प्रत्येक्ष मुमुक्षु आत्मा को पास में रहे हुए अन्तर्यामी प्रभु के साथ मिलने का अर्थात् आत्मस्वरूप में तन्मयता साधने का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। यही सर्व योगों का सार है, यही सर्व आगमों का परम रहस्य है ।
સ્તવનમાં આપેલા ચિત્રોનું વિવરણ ૧૫(૧) શ્રી ધર્મનાથ ભગવાન ૧૫(૨) પૂ. આચાર્ય ભગવંત ઉપદેશ આપે છે. લોભના કારણે શેઠની સર્પયોનિમાં ઉત્પત્તિ - કર્મના સંદર્ભમાં આ વિચારવા જેવું છે.
हुमो गाथा - ६. १५(3) मधुलि हुमो गाथा - ६, संसारनु स्व३५. बतायु छ. भटतो भाएस, (संसारी 4) ली हाथीथी (भुत्य) या
કૂવામાં પડયો. વચ્ચે આવેલી વડવાઈ (આયુષ્ય) પકડી લીધી. નીચે જોયું તો ચાર સાપ (ચાર ગતિ), ઉપર વડવાઈને કાપતા બે કાળા-ધોળા (શુક્લ-કૃષણપક્ષ) ઉંદર, હાથીએ ઝાડ હલાવતાં મધપુડામાંથી ઊડેલી મધમાખીઓ (ચિંતાઓ) કરડી, પડતું મીઠું મધ
ચાખવા વિમાનમાં બચાવવા આવેલા વિદ્યાધર (સદ્ગુરુ)ને ના પાડી. ૧૫(૪) કાયોત્સર્ગમાં રહેલા આનંદ શ્રાવકને થયેલ ઉપસર્ગ. ધ્યાનસ્થ અવસ્થાના આ ચિત્ર માટે જુઓ ગાથા ૮-૧૦.
ARTNERMIRINTRE
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