________________
આવી અનુપમ, અનંત, અપાર સંપત્તિની પ્રાપ્તિ પરમ કરુણા-નિધાન પરમેશ્વરનાં નામ-સ્મરણ અને (દ્રવ્ય-ભાવ) પૂજન દ્વારા થઈ શકે છે, તેથી શુદ્ધ-આશયપૂર્વક નિરાશસભાવે પ્રભુનું સ્મરણ અને પૂજન કરવું જોઈએ. દ્રવ્ય-પૂજા પણ ભાવ-પૂજાને ઉત્પન્ન કરનાર હોવાથી આદરણીય છે. પ્રભુના વિરહમાં પ્રભુ-પ્રતિમાનું પૂજન કરવાનું શાસ્ત્રીય વિધાન છે, કેમકે જિન-પ્રતિમાને શાસ્ત્રોમાં જિન સમાન માની છે. | જિનાગમોમાં પ્રભુ-વંદનનું, પ્રતિમા-પૂજનનું કે મહાવ્રત(સંયમ) પાલનનું જે હિત, સુખ અને મોક્ષરૂપ ફળ બતાવ્યું છે તે એકસરખું છે. માટે દ્રવ્ય-પૂજા પણ શુદ્ધતાપૂર્વક અવશ્ય કરવી જોઈએ, જેથી આત્મામાં સમ્યગુ-દર્શનાદિ ગુણોની પ્રાપ્તિ તથા વૃદ્ધિ થાય. દ્રવ્ય-પૂજામાં થતી સ્થાવરની હિંસા એ ભાવ-હિંસા નથી. કારણ કે આત્મ-ગુણની વૃદ્ધિરૂપ ભાવ-દયાનુ તે કારણ છે અને ભાવ-દયા એ મોક્ષનું કારણ છે.
જિનાગમોમાં દ્રવ્ય-હિંસાને ભાવ-હિંસાનું કારણ માન્યું છે, તે વિષય-કષાયના અર્થે થતી હિંસા છે. પરંતુ પ્રભુ-ગુણનું બહુમાન કરનાર વ્યક્તિને પુષ્ય-પૂજા વખતે થતી સ્વરૂપ-હિંસા એ ભાવ-હિંસાનું કારણ ન હોવાથી અનુબંધ-હિંસા નથી. માટે આત્માર્થીઓએ પ્રભુપૂજા ભાવોલ્લાસપૂર્વક કરવી જોઈએ.
આત્મ-સાધનાનું પ્રથમ સોપાન પ્રભુ-પૂજા છે, તેનાથી ત્રણે યોગની સ્થિરતા થાય છે. ત્યાર પછી અનુક્રમે સ્તોત્રપૂજા, જાપ, ધ્યાન અને લય અવસ્થા પ્રાપ્ત થાય છે અને તેના સતત અભ્યાસથી અનુક્રમે આત્મ-તત્ત્વનો અનુભવ અર્થાત્ સાક્ષાત્કાર થાય છે.
दसवें स्तवन का सार... इस स्तवन में जैनदर्शन मान्य ईश्वर-तत्त्व का विशद स्वरूप बताया गया है | श्री जिनेश्वर परमात्मा ही समग्र विश्व के राजा-महाराजा हैं । उनमें रही | हुई प्रभुता अनन्त, निर्मल, विशुद्ध एवं सम्पूर्ण है ।
प्रभु के केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की अनन्तता किसी के द्वारा जानी या मापी नहीं सकती। प्रभु के असंख्य प्रदेशरूप खजाने में अनन्त गुणपर्यायरूप अनन्त अक्षय सम्पत्ति रही हुई है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन की अनन्तता : जगत के सब (जीव-अजीव) द्रव्यों के सर्व प्रदेशों में रहे हुए सर्व गुण-पर्यायों के त्रिकालवर्ती परिणामों को एकसाथ जानने और देखने का स्वभाव केवलज्ञान और केवलदर्शन का है ।
चारित्रगुण की अनन्तता : संयमश्रेणी के द्वारा चारित्र की अनन्तता इस प्रकार समझी जा सकती है - निरावरण हुए चारित्रगुण के पर्यायअविभाग सर्व जीव की अपेक्षा अनन्त गुण हैं, उसकी एक वर्गणा' होती है । ऐसी असंख्यात वर्गणाओं का एक स्पर्धक' होता है । ऐसे असंख्यात स्पर्धकों का एक संयम-स्थानक होता है, यह सबसे जघन्य प्रथम संयमस्थानक कहा जाता है । इसके पश्चात् षड्गुण हानि-वृद्धि की अपेक्षा से असंख्यगुण संयमस्थानक होते हैं, तब सर्वोत्कृष्ट संयमस्थानक होता है । इसका विस्तृत स्वरूप 'व्यवहारभाष्य' आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए ।
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य गुण की अनन्तता भी इसी तरह जाननी चाहिए । जैसे कि -
वीर्य गुण ज्ञानादि सर्व गुणों को जानने की प्रवृत्ति में प्रेरक बनता है, चारित्र गुण स्थिरता का सहायक होता है । इस प्रकार अनन्त गुण परस्पर अनन्त दान करते हैं, यह दान-गुण की अनन्तता जाननी चाहिए ।
परस्पर एक दूसरे से जो सहायता प्राप्त होती है वह लाभ गुण की अनन्तता है । एक बार भोगा जाय उसे भोग कहते हैं । परमात्मा अनन्त पर्यायों के भोक्ता हैं, यह भोग-गुण की अनन्तता है ।
ज्ञानादि गुण का बार-बार उपभोग करना, उपभोगगुण की अनन्तता है । अव्याबाध सुख (आनन्द) की अनन्तता निर्मलता और पूर्णता का स्वरूप इन्द्रियगोचर नहीं है । प्रभु जैसा शुद्ध आत्मा ही उसका ज्ञाता एवं भोक्ता बन सकता है ।
__अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा ईश्वरता भी अनन्त है । जगत के सब पदार्थों की प्रवृत्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार प्रकार की होती है । प्रभु का केवलज्ञान भी इसी तरह चार रूप में प्रवृत्ति करता है, यही प्रभु की महान राजनीति है । विश्व का कोई भी पदार्थ उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।
ऐसी अनुपम अनन्त अपार सम्पत्ति की प्राप्ति परम करुणानिधान परमेश्वर के नाम- स्मरण और द्रव्य-भावपूजन द्वारा हो सकती है । अत: शुद्ध आशयपूर्वक निराशंस भाव से प्रभु का स्मरण और पूजन करना चाहिए । द्रव्य-पूजा भी भावपूजा का कारण होने से आदरणीय है |
प्रभु के विरह में प्रभु प्रतिमा का पूजन करना शास्त्रीय विधान है क्योंकि जिनप्रतिमा को शास्त्रों में जिन समान माना हैं ।
Jain Education International
For Personal
Rate Use Only
www.jainelibrary.org