________________
पाँचवें स्तवन का सार ...
इस स्तवन में परमात्मा की स्याद्वादमयी शुद्ध-स्वभाव की दशा का वर्णन किया गया है। उसे जानने से चतुर पुरुषों के चित्त में महान् आश्चर्य उत्पन्न होता है ।
परमात्मा स्वगुण- पर्याय में ही रमणता करते हैं । शुद्ध आत्मद्रव्य की शुद्धता का यही लक्षण है ।
गुण- पर्याय के आश्रय को द्रव्य कहते है । जो एक द्रव्य के आश्रित हो वह गुण कहा जाता है । गुण सहभावी होता है, जैसे कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि । जो द्रव्य-गुण दोनों के आश्रित हो वह पर्याय कहा जाता है । पर्याय क्रमभावी होता है, जैसे कि द्रव्य-पर्याय, गुण-पर्याय आदि । इसी तरह जीव द्रव्य के नारकत्व-देवत्वादि पर्याय और ज्ञान गुण के अतीत वर्तमान आदि पर्याय ।
परमात्मा स्वगुण- पर्यायरूप भोग्य पदार्थो के ही भोक्ता हैं । पुद्गल के वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि को भोगने के लिए कामना-इच्छा करनी पड़ती है परन्तु स्व-प्रदेशों में प्रकट हुए अनन्त गुण पर्यायों को भोगने के लिए कोई अभिलाषा नहीं करनी पड़ती । इसीलिए प्रभु भोगी होते हुए भी अकामी हैं । परमात्मा की शुद्धता, नित्यानित्यता, भेदाभेदता, एकानेकता, अस्तितानास्तिता आदि परस्पर विरुद्ध धर्म से युक्त होती है । वह इस प्रकारनित्यानित्यत्व : सर्व द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त होते हैं । इसलिए वे नित्यानित्य हैं ।
जिस द्रव्य का षड्गुण हानि-वृद्धिरूप अगुरुलघु-पर्याय का चक्र एकत्र जलावर्त की तरह फिरता है वह एक द्रव्य है और जिनका चक्र अलगअलग होता है वे सब अलग-अलग द्रव्य कहलाते हैं । जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ये एक एक द्रव्य हैं जबकि जीव और पुद्गल अनन्त हैं 1
शुद्ध आत्म-द्रव्य का नित्यानित्यत्व : अभिनव पर्याय की उत्पत्ति और पूर्व पर्याय का नाश, यह अनित्यता है और वह अगुरुलघु आदि पर्याय की अपेक्षा से जाननी चाहिए। जैसे कि आत्मा के एक प्रदेश में अगुरुलघु-पर्याय अनन्तगुण है, दूसरे प्रदेश में उससे अनन्तभाग हीन है, तीसरे प्रदेश में उससे भी असंख्यात गुण अधिक है इत्यादि ।
इस पर्याय की हानि-वृद्धि में प्रतिसमय परावर्तन हुआ करता है । जिन प्रदेशों में अनन्तगुण होता है, उन्हीं प्रदेशों में असंख्यातगुण भी होता है । इस प्रकार प्रदेश में अनन्तगुण का व्यय और असंख्यातगुण का उत्पाद हुआ, यह अनित्यता है । पर्याय की हानि वृद्धि होने पर भी अगुरुलघु-रूप में वह सदा विद्यमान-ध्रुव होता है, यह नित्यता है ।
ज्ञातृत्व धर्म की अपेक्षा से ज्ञानगुण में भी नित्यानित्यता : किसी विवक्षित समय में ज्ञान जिस वस्तु को वर्तमानरूप में जानता है उसे ही दूसरे समय में अतीतरूप में जानता है । उसमें अतीत (भूत) रूप से उत्पाद और वर्तमानरूप से नाश होता है लेकिन ज्ञान के रूप में ध्रुव-नित्य रहता है । दर्शनचारित्रादि सर्वगुणों की प्रवृत्ति भी इसी तरह होती है ।
कार्य-कारण की अपेक्षा से ज्ञानगुण में नित्यानित्यत्व : ज्ञान गुण जब जानने के रूप में प्रवर्तित होता है तब वह उपादान कारण है और सर्व का ज्ञान करना-जानना यह उसका कार्य है । एक ही समय में ज्ञानरूप कारण ज्ञप्तिरूप कार्य के रूप में परिणत होता है अतः कार्यरूप में उत्पाद और कारणरूप से व्यय हुआ, यह उसकी अनित्यता है तथा ज्ञानगुण के रूप में वह ध्रुव रहता है, यह नित्यता है ।
एकता - अनेकता : ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, है और वह अनन्त गुण- पर्याय का समुदायरूप आत्मा एक है,
कार्य की अपेक्षा से भी भेदाभेदत्व : ज्ञान गुण जानने का, इस प्रकार सर्व गुण अपने अपने कार्य के कर्त्ता होने से आत्मा में भेद अतः अभेद स्वभाव भी है ।
अस्तित्व- नास्तित्व : आत्मा में स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और की अपेक्षा से नास्तित्व है अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुणों का अस्तित्व नहीं होता ।
अरूपी अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुण अलग अलग है, अतः अनेकता अतः एकता है ।
Jain Education International
दर्शन गुण देखने का, चारित्र गुण स्थिरता-रमणता का कार्य करता है । स्वाभाव है । परन्तु आत्म-द्रव्य में से कोई भी गुण अलग नहीं पड़ता
भाव की अपेक्षा से अस्तित्व है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कभी नष्ट नहीं होता तथा वह आत्मा परभाव के रूप में कभी परिणत
सावयवता और निरवयता: लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेश आत्मा के है अर्थात् आत्मा की असंख्य-प्रदेशों के रूप में सावयवता है । परन्तु वे प्रदेश परस्पर सांकल की तरह जुड़े हुए हैं, वे कभी भी आत्मा से अलग नहीं होते । इस अपेक्षा से उसकी अखण्ड निरवयवता है । कर्तृता-अकर्तृता : परमात्मा ज्ञानादि कार्य के कर्ता होने से कर्तृता के रूप में परिणत होते हैं, फिर भी कुछ भी नवीनता उनमें नहीं आती अर्थात् अस्ति स्वभाव वह का वह का वही कायम रहता है ।
इस प्रकार सर्व परभाव से रहित और स्याद्वादमयी शुद्धता के भोगी प्रभु के गुणों का ज्ञान होने से साधक तत्त्वरुचिवाला बनता है और तत्त्व-रमणता प्राप्त करके वह प्रभु के जैसी अपनी प्रभुता को प्रकट कर लेता है ।
अनुक्रम
For Personal & Private Use Only १३६
से
www.jainelibrary.org