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________________ चौथे स्तवन का सार... श्री अरिहंत परमात्मा के साथ की जाने वाली रसीली (एकत्वमिलनरूप) भक्ति को परा-भक्ति भी कहते हैं । प्राथमिक अवस्था में स्वामीसेवकभाव से जो भक्ति होती है उसे अपरा-भक्ति कहते है । उस अपराभक्ति के आलंबन से मैं परमात्मा हूं' या परमात्मा ही में हूं' ऐसी एकता प्रकट होती है वह 'परा-भक्ति' या 'रसीली भक्ति' कही जाती हैं । पर-पुद्गल पदार्थो की आसक्ति छोड़ने से ही प्रभु के साथ एकता-तन्मयता प्रकट होती है। पुद्गल पदार्थो का भोगी कदापि शुद्ध-तत्त्व (परमात्मा) के साथ एकता स्थापित नहीं कर सकता। श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ एकत्व मिलन होना बहुत ही दुष्कर है क्योंकि प्रभु और हमारे बीच का अन्तर बहुत बड़ा है । जैसेप्रभु निष्कर्मा परमात्मा है और हम पुद्गल-भोगी बहिरात्मा हैं । प्रभु परमोत्कृष्ट तथा सम्पूर्ण स्वाधीन ऐश्वर्य (अनन्त गुण-पर्याय) से युक्त हैं और हम विशिष्ट-श्रुतज्ञानादि से रहित भावदरिद्री हैं । प्रभु कर्म के लेप से रहित होने से अलिप्त हैं और हम कर्ममल से लिप्त हैं । प्रभु के- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्पूर्ण शुद्ध हैं और हमारे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अशुद्ध हैं । (१) द्रव्य – गुणपर्याय का समुदाय (२) क्षेत्र - प्रदेश अवगाहना (३) काल - उत्पादव्यय की वर्तना (४) भाव - स्वगुणपर्याय की प्रवृत्ति इस प्रकार प्रभु और हमारे बीच महान् अन्तर रहा हुआ है । अतः परस्पर मिलन होना कठिन है अर्थात् इस अन्तर का छेद भगीरथ पुरुषार्थ से ही शक्य है। अरिहन्त परमात्मा शुद्ध आत्म-स्वरूप हैं, नित्य हैं, निर्मल (कर्ममलरहित) हैं और नि:संग (सर्व संगरहित) है । प्रभु केवलज्ञानादि स्व शुद्ध-स्वरूप के स्वामी तथा परमानन्द के भोगी होने से अन्य किसी के साथ नहीं मिलते । यह वास्तविकता है तथापि जिसे स्वात्म-सम्पत्ति प्रकट कर प्रभु के साथ मिलने की-एकता साधने की तीव्र रुचि होती है उसे जिनागमों में कहे हुए उपायों का रहस्य जानकर उनका आदरपूर्वक आसेवन करना चाहिए । वे उपाय इस प्रकार हैं जीव में पुद्गल के योग से पर में परिणमन करने की कुटेव अनादिकाल से पड़ी हुई है । उस कुटेव को मुमुक्षु जीवों को सर्वप्रथम दूर करना चाहिए । इसके लिए वैराग्यजनक हित-वचनों से शिक्षा देकर आत्मा को शिक्षित करना चाहिए । जैसे हे चेतन ! तेरा सहज आत्मिक सुख कर्म से आवृत होने से तू पुद्गल के भोग में आसक्त बनकर उसमें आनन्द मान रहा है परन्तु जिन भोगों को जगत् के सर्व जीवों ने अनन्त बार भोगा है वे भोग-वह सर्व पुद्गलराशि इस जगत् के जीवों की झूठन समान है एवं विनाश-स्वभाववाली है अतः ये जड़ पदार्थ भोगने योग्य नहीं है। हंस जैसा प्राणी भी विष्टादि मलिन पदार्थों में कभी अपनी चोंच नहीं डालता । तो हे चेतन ! तुझे ये अशुभ मलिन पुद्गलों का भोग कैसे रुचिकर लगता है ? अतः इस सर्व परभाव का त्याग कर और आत्मानंदी गुणलयी और सर्व साधकों के परम ध्येय रूप श्री अरिहन्त परमात्मा का आलम्बन लेकर उनके ध्यान में तन्मय हो जा ___एकतान बन जा। दान, लाभ, भोग आदि आत्मा की ही शक्तियाँ हैं ICKS 50 आत्मा प्रतिक्षण कुछ न कुछ भोगता ही है परन्तु स्वरूप का लाभ न होने से वह विनाशी पुद्गलों के धर्मों (शब्दादि विषयों) . का भोगी बन गया है । यह परभोग जहाँ तक चालू रहता है तब तक उसे अपनी प्रभुता प्राप्त नहीं होती । स्वप्रभुता को प्रकट करने प के लिए सम्पूर्ण प्रभुतामय अरिहन्त परमात्मा का आलम्बन लेना ही पड़ता है। जड़ के संग को छोड़कर आत्मा जैसे जिनेश्वर प्रभु के ध्यान में विशेष एकाग्र बनती है अर्थात् अपनी क्षयोपशमभाव की चेतना और वीर्यशक्ति द्वारा ज्यों ज्यों अरिहन्त की शुद्धता में तन्मयता-रमणता प्राप्त होती है त्यों त्यों साधक को अपने शुद्ध-स्वरूप का स्मरण, चिन्तन एवं ध्यान सिद्ध होते जाते ao, आत्मानंद शुद्ध-निमित्त के आलम्बन से उपादान शक्ति जागृत होने के पश्चात् आत्मा अपने शुद्ध-स्वरूप में श्रद्धा एवं ज्ञानसहित रमणता करके उसमें तन्मय बनता है तब सम्पूर्ण स्वाधीन अनन्त अक्षय ज्ञान, दर्शन, चारित्र और अव्याबाध सुख (आनन्द) प्रकट होते हैं । इसके पश्चात् आत्मा आदि-अनन्तकाल तक पूर्णरूप से प्रकट हुई गुणराशि में ही रमणता करता हुआ उसका ही भोग करता है । इस प्रकार प्रभु के साथ आत्मानुभव के अभ्यासपूर्वक तन्मयता होने से प्रभु का एकान्तिक-आत्यन्तिक मिलन हो सकता है । ज्ञानादि स्वप्रभुता की प्राप्ति ही प्रभु के साथ मिलन है । इस स्तवन में बताई हुई रसीली भक्ति प्रभु मिलन का प्रधान उपाय है, क्योंकि वह आत्मार्पण, समापत्ति (ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता), अनुभव-दशा, परा-भक्ति या अभेद-प्रणिधान स्वरूप है । आत्मार्पण आदि के स्वरूप को जानने वाला साधक इस रहस्य को सरलता से समझ सकता है । प्रभु की एकत्व-मिलनरूप रसीली-भक्ति ही सर्व आगमों का, अध्यात्म-शास्त्रों का या योगशास्त्रों का रहस्य है। उसके द्वारा आत्म-अनुभव की प्राप्ति बहुत ही सरल और शीघ्र हो जाती हैं । असंख्य योगों में नवपद मुख्य योग है । इसके आलम्बन से आत्मध्यान सहज रीति से प्रकट होता है । नवपदों में भी अरिहन्त पद मुख्य है । अरिहन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only ११३ www.jainelibrary.org
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
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