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के ध्यान से नवपदों का ध्यान सिद्ध होता है अतः अरिहन्त प्रभु की परा-भक्ति ही सर्व योगों का सार है ।
श्री अरिहन्त परमात्मा परम ऐश्वर्ययुक्त होने से परमेश्वर हैं ।
वे अपने ही पूर्ण शुद्ध स्वरूप के कर्त्ता-भोक्ता है ।
रागादि दोषों से रहित होने से अलिप्त हैं, किसी के साथ वे मिलते नहीं ।
उनके ध्यान में तन्मय-तद्रूप बननेवाले का उनके जैसा ही पूर्ण शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है ।
इन चार विशेष बातों द्वारा जैनदर्शनमान्य परमात्मतत्त्व का महान् रहस्यमय स्वरूप स्याद्वाद शैली से यहाँ बताया गया है। उस पर संक्षेप से विचार
करें
(१) निश्चय नय की अपेक्षा से अरिहन्त परमात्मा अन्य जीवों के मोक्ष के कर्त्ता नहीं हैं परन्तु अपने पूर्ण शुद्ध-स्वरूप के कर्त्ता हैं ।
अपने समान ही यदि अन्य जीवों का मोक्ष भी साधा जा सकता होता तो परम भाव करुणा के सागर और सवी जीव करूं शासनरसी की उत्कृष्ट 'भावनावाले वे किसी भी जीव को मोक्षसुख से वंचित नहीं रहने देते । परन्तु वस्तु-स्थिति ही ऐसी है कि प्रत्येक जीव को मोक्ष प्राप्त करने के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसमें परमात्मा का पूर्ण शुद्ध स्वरूप सर्व भव्य जीवों को अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति के प्रबल पुरुषार्थ में महान प्रेरणादायी बनता है ।
(२) व्यवहार नय की अपेक्षा से अरिहन्त परमात्मा शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति में पुष्ट- निमित्त हैं । उनके आलम्बन, स्मरण, चिन्तन या ध्यान बिना कोई भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं पहिचान सकता या अनुभव नहीं कर सकता तो मोक्ष प्राप्ति की तो बात ही दूर रही । इतना ही नहीं, सम्यग्दर्शनादि सर्व उच्च भूमिकाओं की प्राप्ति भी श्री अरिहन्त परमात्मा की कृपा से ही होती है । अतः सर्व सद्गुण, सम्पत्ति और यावत् मोक्षसुख के दाता श्री अरिहन्त परमात्मा हैं ।
इस प्रकार, प्रभु का पुष्ट-निमित्त कर्तृत्व मुमुक्षु साधकों की आत्म- साधना में अतिशय उपकारक है। प्रभु के निमित्त-कर्तृत्व के बिना साधक के जीवन में संभवित अहंभाव (मैं अपने पुरुषार्थ से ही आगे बढ़ रहा हूं
ऐसा अभिमान) दूर होना शक्य नहीं है ।
ऐसे अनेक भयस्थानों से बचने और मोक्षलक्षी सर्व साधनाओं विकसित करना अनिवार्य है । उन गुणों में उत्तरोत्तर विकास है । इस प्रकार, प्रभु का निमित्त कर्तृत्व मानना अति
निश्चय दृष्टि को लक्ष्य में रखकर जो पुण्यात्मा सागर को पार कर सकता है ।
अरिहन्त परमात्मा पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं फिर भी भव्य जीवों को प्रभु आज्ञा की आराधना करने से मोक्षप्राप्तिरूप होता है ।
का वास्तविक फल पाने के लिए जीवन में कृतज्ञता एवं नम्रता गुण परमात्मा की आदर- बहुमानपूर्वक सेवा-भक्ति करने से ही होता आवश्यक हो जाता है ।
व्यवहार के पालन में तत्पर बनता है वह शीघ्र ही भव
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अत एव वे किसी पर रागवश अनुग्रह या द्वेषवश निग्रह नहीं करते । अनुग्रह और प्रभु आज्ञा की विराधना करने से भव-भ्रमणरूप निग्रह अवश्य
परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का भी अपेक्षा से एक वस्तु में समन्वय करने की अद्भुत शक्ति एकमात्र स्याद्वाद शैली में ही रही हुई है । सुज्ञ जिज्ञासु साधकों को सद्गुरु के समागम द्वारा इस स्याद्वाद के सूक्ष्म स्वरूप को स्पष्ट रीति से समझकर शास्त्रों के सूक्ष्म गहन तत्त्वों के रहस्य को जानने और जीवन में उतारने हेतु उसका सदुपयोग करना चाहिए ।
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