________________
XIV
आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग | अपूर्ववाणी परमश्रुत सद्गुरुलक्षण योग्य | आत्मज्ञान त्यां मुनिपणु, ते साचा गुरु होय | बाकी कुलगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहि जोय ॥
आत्मज्ञान या स्वरुपबोध के अभाव में ज्ञान सम्यक्ज्ञान नहीं है, वह मात्र सूचनात्मक ज्ञान है, ऐसा सूचनात्मक ज्ञान तो एक कम्प्यूटर में भी हो सकता है, किन्तु वह तो मात्र शाब्दिक सूचना मात्र है, वह आत्मकल्याण में साधक नहीं है। वह 'पर' के प्रति मिथ्या 'स्व' के आरोपण से मुक्ति नहीं दिला सकता है, 'स्व' (Self) के सच्चे स्वरूप बोध नहीं करवा सकता है। इसलिए आनन्दघनजी ने कहा है
आत्मज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे ।
-
किन्तु यह आत्मज्ञान ज्ञाता ज्ञेय संबंधरूप ज्ञान नहीं है। क्योंकि उपनिषदों में स्पष्टतः कहा गया है
विज्ञांतरे अरे केन विजानीयेत ।
येन सर्व विज्ञातव्य भवति, तेन किम् विजानीयेत ॥
यद्यपि उपनिषद् एक ओर यह भी कहते है कि यदि विश्व में कोई जानने योग्य या मनन करने योग्य तत्त्व है, तो वह आत्मा ही है। किन्तु यह आत्मज्ञान मात्र अन्तर्दर्शन से संभव है। यह आत्म अनात्म के विवेक से प्रकट होता है। इसीलिए परमकृपालु देव ने आत्मसिद्धिशास्त्र में कहा है
भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देहसमान | पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान ॥
इस आत्म-अनात्म विवेक के लिए श्रीमद्जी ने आत्मसिद्धिशास्त्र में षट्स्थानकों की बात कही है-इन षट्स्थानकों की चर्चा हमे विशेषावश्यक भाष्य आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में भी मिलती है । ये षट्स्थानक है- १ आत्मा है, २ आत्मा नित्य है, ३ आत्मा कर्ता है, ४ आत्मा भोक्ता है, ५ मोक्ष है और ६ मोक्षमार्ग है । इन षट्स्थानकों की सिद्धि हेतु परमकृपालुदेव श्रीमद्जीने पूर्व पक्ष और उत्तरपक्ष के तर्क भी दिये है । सर्वप्रथम आत्मसिद्धि हेतु कहा गया है कि आत्मा के प्रति शंका भी आत्मा के अभाव में संभव नहीं है। क्योंकि बिना चेतन सत्ता को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org