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________________ XIII | किन्तु जीता नहीं है। जानना (ज्ञान) और मानना (श्रद्धा) तो बहुत होता है, किन्तु यदि जीना नहीं होता है, तो वह जानना और मानना व्यर्थ है। ज्ञान और दर्शन चाहे कितना ही हो, किन्तु यदि सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप नहीं है, तो मुक्ति संभव नहीं हैं। ज्ञान कितना ही अर्जित कर लिया हो, किन्तु यदि जीया नहीं जाता है तो व्यर्थ ही है। क्रियाविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन क्रिया दोनों ही निरर्थक है। इसीलिए ज्ञानयोग, क्रियायोग और भक्तियोग तीनों की समन्विति में ही मोक्ष प्राप्ति संभव होगी। परमकृपालु देव की यह वाणी पूज्यश्री के प्रवचनों में अति मुखर हुई है। इसीको स्पष्ट करते हुए परमकृपालु देव ने कहा है। बाह्य क्रियामां राचता, अंतर्भेद न कांइ; ज्ञानमार्ग निषेधता, तेह क्रिया जड आइ॥ दूसरी ओर वे यह भी स्पष्टत: कहते है बंध-मोक्ष छे कल्पना भाखे वाणी मांही। वर्ते मोहावेशमां शुष्कज्ञानी ते आंही ।। जिस प्रकार रथ को चलने में दोनो चक्र, पक्षी को उडने में दो पंख और मनुष्य को चलने हेतु दोनों पैर आवश्यक है, उसी प्रकार ज्ञान और क्रिया के समन्वय में ही मुक्ति है। परमकृपालुदेव और पूज्यश्री के जीवन में इन दों का समन्वय स्पष्ट देखा जाता है, किन्तु यह दुर्भाग्य है, कि आज एक पक्षीयता प्रमुख होती जा रही है। आत्मसिद्धि जैसे सद् शास्त्र और परमकृपालुदेव के जीवन दर्शन से यदि एक यही बात सीख सके, तो पूज्यश्री के इन प्रवचनों की सार्थकता होगी। परमकृपालुदेवने स्पष्टत: कहा है त्याग विराग न चित्तमां थाय न तेने ज्ञान । अटके त्याग विरागमां तो भूले निज भान ।। ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ तिहां समजवू तेह। त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन अह ।। आत्मसिद्धिशास्त्र और उस पर हुए पूज्यश्री के प्रवचनों की दूसरी विशेषता यह है कि वे बाह्यलक्षी नहीं, आत्मलक्षी है, वे अन्तरावलोकन या अन्तर्दर्शन पर बल देते है, साथ ही 'पर' | में जो अपने पन का मिथ्याबोध और मिथ्याग्रह है उससे मुक्त होने की बात करते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005521
Book TitleAtmasiddhishastra Part 01
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorBhanuvijay
PublisherSatshrut Abhyas Vartul
Publication Year2011
Total Pages492
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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