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________________ XII निश्चयवाणी सांभली, साधन तजवां नो'य। निश्चय राखी लक्षमां साधन करवां सोय ॥ अथवा निश्चय नय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय। लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहित थाय ।। श्रीमद्जी की इस अनाग्रही दृष्टि का निर्वाह पूज्य श्री भानुविजयजी ने अपने व्याख्यानों में पूरी प्रामाणिकता के साथ किया है , वे निश्चय और व्यवहार दोनों को साथ लेकर चलते है। वे यह कहते है कि निश्चय जानने योग्य है और व्यवहार करने योग्य है, व्यवहार का परित्याग नहीं किया जा सकता है। श्रीमद्जी आत्मसिद्धिशास्त्र में कहते है - जे सद्गुरु उपदेशथी, पाम्यो केवलज्ञान । गुरु रह्या छद्मस्थ पण, विनय करे भगवान । (१९) इस प्रकार हम देखते है कि श्रीमद्जी ने पूज्यश्रीजी ने सिद्धान्त और व्यवहार के मध्य | एक समन्वय का सूत्र दिया है, सिद्धान्त जानने और मानने योग्य है, किन्तु व्यवहार जीने योग्य है। जगत की व्यवस्था, फिर चाहे वह मुनिजीवन की हो या गृहस्थजीवन की हो, वह तो विशुद्ध रूप से व्यवहार पर चलती है, यदि व्यवहार का लोप होगा तो सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ चरमरा जायेगी। इसीलिए श्रीमद्जीने आत्मसिद्धिशास्त्र में एवं पूज्यश्रीजी ने उसकी अपनी व्याख्या में इस समन्वयतात्म दृष्टि को अपनाया है। श्रीमद्जी आत्मसिद्धि में कहते है - कोइ क्रिया जड थई रह्या, शुष्कज्ञानमा कोइ। माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई॥ इसीकी व्याख्या में पूज्यश्री लिखते है- "परमकृपालु देव (श्रीमद् राजचन्द्रजी) कहे छे. अमे जगतने जोईये छीओ तेमां अमने बे पात्रो जोवा मल्या। कोइक क्रिया जड बन्या छे अने कोइक शुष्क ज्ञानी बन्या छे। क्रिया करे छे पण तेमां जडता छ (सम्यक् समझ नहीं) ज्ञान छे पण शुष्कता छ। नदी होय, पण तेमां नीर न होय तो नदी शोभे नहीं, रात होय पण तेमां चन्द्रमा न होय तो रात शोभे नहीं तेम ज्ञान होय पण तेमां वैराग्य नहीं होय, ज्ञान होय पण तप त्याग न होय तो ज्ञान शोभे नहीं'' (पृ ३१) वस्तुत: वर्तमान युग की सबसे प्रमुख समस्या यही है कि व्यक्ति सत्य को जानता तो है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005521
Book TitleAtmasiddhishastra Part 01
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorBhanuvijay
PublisherSatshrut Abhyas Vartul
Publication Year2011
Total Pages492
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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