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________________ XI अभिव्यक्ति का प्रयत्न होती है। सत्य तो एक ही होता है, उसकी अभिव्यक्ति जब शब्दों के माध्यम से होती है वह सीमित हो जाता है। आत्मसिद्धिशास्त्र पर पूज्य गुरुजी के ये व्याख्यान उस ससीम को असीम बनाने का पुरुषार्थ है । उसमें तार्किकता नहीं, एक आत्मानुभूति अभिव्यक्त होती है। आत्मसिद्धिशास्त्र का अवतरण भी एक समग्र सत्य के अवगाहन हेतु हुआ, वह गच्छ, मत और पंथ से उपर उठकर एक समग्र सत्य को प्रस्तुत करता है, उसमें | विरोध में भी अविरोध को देखने का प्रयत्न हुआ है तथा वीतराग परमात्मा की अनेकांत दृष्टि के पोषण का पुरुषार्थ है। इसलिए श्रीमद्जी कहते है आगल ज्ञानी थई गया, वर्तमानमा होय। थाशे काल भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय ।। श्रीमद्जी एवं व्याख्याकार श्री भानुविजयजी दोनों ही गच्छ, मत, पंथ, संप्रदाय आदि से उपर उठकर सत्य का आख्यान एवं व्याख्या प्रस्तुत करते हैश्रीमद्जी कहते हैं दर्शन षटे समाय छे, आ षट् स्थानक मांही। विचारवां विस्तारथी, संशय रहे न कांइ॥ पुन: वे कहते है गच्छ मतनी जे कल्पना, ते नहीं सद्व्यवहार । भान नहीं निज रुपनु, ते निश्चय नहीं सार ।। पूज्य श्री भानुविजयजी ने भी अपने व्याख्यानो में इसी बात को स्पष्ट किया है कि 'आत्म साधना गच्छ मत एवं पंथ से उपर उठकर ही सम्भव हो सकती है। क्योंकि जब गच्छ, मत और पंथ के आग्रह है, राग भाव है और जब महावीर के प्रति गौतम का रागभाव उनकी वीतरागता में बाधक बना रहा तो हम किस खेत की मूली है ? श्रीमद्जी ने निश्चय व्यवहार, उपादान निमित्त, ज्ञान और क्रिया के संबंध में जो उदार एवं समन्वयात्मक दृष्टि दी है, पूज्यश्री ने उसी बात को अपने इन व्याख्यानों में स्पष्ट किया है। श्रीमद्जी आत्मसिद्धिशास्त्र में अपने भावों को अभिव्यक्त करते हुए कहते है नय निश्चय एकांतथी, आमां नथी कहेल। एकांते व्यवहार नही, बन्ने साथ रहेल ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005521
Book TitleAtmasiddhishastra Part 01
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorBhanuvijay
PublisherSatshrut Abhyas Vartul
Publication Year2011
Total Pages492
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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