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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय-प्रन्थकार का तात्पर्य उनकी स्वोपज्ञ विचारणा ६३ युक्तिसंगत नया अर्थ निकालने में वे ही लोग डर सकते हैं जो तर्कशास्त्र से अनभिज्ञ है। तर्कशास्त्र के जान कार तो अपनी प्रज्ञा से नये नये अर्थ प्रकाशित करने में कमी नहीं हिचकिचाते । इस बात का उदाहरण संमति का दूसरा काण्ड ही है। जिस में केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में क्रम, योगपद्य तथा अभेद पक्ष का खण्डन-मण्डन करने वाली चर्चा है । जिस चर्चा में पुराने एक ही सूत्रवाक्यों में से हर एक पक्षकारने अपने अपने अभिप्रेत पक्ष को सिद्ध करने के लिए तर्क द्वारा जुदे जुदे अर्थ फलित किए हैं। २-मल्लवादी जो एक ही समय में ज्ञान-दर्शन दो उपयोग मानते हैं उन्हों ने भेदस्पर्शी व्यवहार नय का आश्रय लिया है । अर्थात् मल्लवादी का योगपद्य वाद व्यवहार नय के अभिप्राय से समझना चाहि । पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जो क्रम वाद के समर्थक हैं वे कारण और फल की सीमा में शुद्ध ऋजुसूत्र नय का प्रतिपादन करते हैं । अर्थात् वे कारण और फल रूप से ज्ञान-दर्शन का भेद तो व्यवहारनयसिद्ध मानते ही हैं पर उस भेद से आगे बढ कर वे ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से मात्र एकसमयावच्छिन्न वस्तु का अस्तित्व मान कर ज्ञान और दर्शन को भिन्न भिन्न समयभावी कार्यकारणरूप से क्रमपर्ती प्रतिपादित करते हैं । सिद्धसेन सूरि जो अभेद पक्ष के समर्थक हैं उन्हों ने संग्रह नय का आश्रय किया है जो कि कार्य-कारण या अन्य विषयक भेदों के उच्छेद में ही प्रषण है । इस लिए ये तीनों सूरिपक्ष नयभेद की अपेक्षा से परस्पर विरुद्ध नहीं हैं। ३- केवल पर्याय उत्पन्न हो कर कभी विच्छिन्न नहीं होता । अत एव उस सावि अनंत पर्याय के साथ उस की उपादानभूत चैतन्यशक्ति का अभेद मान कर ही चैतन्य को शास्त्र में सादि-अनंत कहा है। और उसे जो क्रमवर्ती या सादिसान्त कहा है, सो केवल पर्याय के भिन्न भिन्न समयावच्छिन्न अंशों के साथ चैतन्य की अभेद विवक्षासे । जब केवलपर्याय एक मान लिया तब तद्गत सूक्ष्म भेद विवक्षित नहीं हैं। और जब कालकत सूक्ष्म अंश विदक्षित हैं तब उस केवलपर्याय की अखण्डता गौण है। ४-भिन्न भिन्न क्षणभावी अज्ञान के नाश और ज्ञानों की उत्पत्ति के भेद आधार पर प्रचलित ऐसे भिन्न भिन्न नयाश्रित अनेक पक्ष शास्त्र में जैसे सुने जाते हैं वैसे ही अगर तीनों आचार्यों के पक्षों में नयाश्रित मतभेद हो तो क्या आश्चर्य है । एक ही विषय में जुदे जुदे विचारों की समान रूप से प्रधानता जो दूर की वस्तु है वह कहाँ दृष्टिगोचर होती है । इस जगह उपाध्यायजी ने शास्त्रप्रसिद्ध उन नयाश्रित पक्षभेदों की सूचना की है जो अज्ञाननाश और ज्ञानोत्पत्ति का समय जुदा जुदा मान कर तथा एक मान कर प्रचलित है । एक पक्ष तो यही कहता है कि आवरण का नाश और ज्ञान की उत्पत्ति ये दोनों, हैं तो जुदा पर उत्पन्न होते हैं एक ही समय में । जब कि दूसरा पक्ष कहता है कि दोनों की उत्पत्ति समयभेद से होती है। प्रथम अज्ञाननाश और पीछे ज्ञानोत्पत्ति । तीसरा पक्ष कहता है कि अज्ञान का नाश और ज्ञान की उत्पत्ति ये कोई जुदे जुदे भाव नहीं हैं एक ही वस्तु के बोधक अभावप्रधान और भावप्रधान दो भिन्न शब्द मात्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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