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________________ ६४ ज्ञानबिन्दुपरिचय-प्रन्थकार का तात्पर्य तथा उन की खोपज्ञ विचारणा ५-जिस जैन शास्त्र ने अनेकान्त के बल से सत्व और असत्व जैसे परस्पर विरुद्ध धों का समन्वय किया है और जिस ने विशेष्य को कभी विशेषण और विशेषण को कभी विशेष्य मानने का कामचार स्वीकार किया है, वह जैन शास्त्र ज्ञान के बारे में प्रचलित तीनों पक्षों की गौण-प्रधान-भाव से व्यवस्था करे तो वह संगत ही है। ६-स्वसमय में भी जो अनेकान्त ज्ञान है वह प्रमाण और नय उभय द्वारा सिद्ध है। अनेकान्त में उस उस नय का अपने अपने विषयं में आग्रह अवश्य रहता है पर दूसरे नय के विषय में तटस्था भी रहती ही है। यही अनेकान्त की खूबी है। ऐसा अनेकान्त कभी सुगुरुओं की परंपरा को मिथ्या नहीं ठहराता । विशाल बुद्धिवाले विद्वान् सदर्शन उसी को कहते हैं जिस में सामञ्जस्य को स्थान हो। ७- खल पुरुष हतबुद्धि होने के कारण नयों का रहस्य तो कुछ भी नहीं जानते परंतु उल्टा वे विद्वानों के विभिन्न पक्षों में विरोध बतलाते हैं। ये खल सचमुच चन्द्र और सूर्य तथा प्रकृति और विकृति का व्यत्यय करने वाले हैं। अर्थात् वे रात को दिन तथा विन को रात एवं कारण को कार्य तथा कार्य को कारण कहने में भी नहीं हिचकिचाते । दुख की बात है कि वे खल कहीं भी गुण को खोज नहीं सकते। -प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु प्रन्थ के असाधारण स्वाद के सामने कल्पवृक्ष का फलखाद क्या चीज है। तथा इस ज्ञानबिन्दु के आस्वाद के सामने द्राक्षास्वाद, अमृतवर्षा और बीसंपत्ति आदि के आनंद की रमणीयता भी क्या चीज है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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