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________________ ६२ ज्ञान विन्दुपरिचय-प्रन्थकार का तात्पर्य तथा उन की स्वोपज्ञ विचारणा मिला होगा। अस्तु । जो कुछ हो पर इस समय हमारे सामने इसनी वस्तु निश्चित है कि अन्य वादों का खण्डन कर के क्रम वाद का समर्थन करने वाला तथा अन्य वादों का खण्डन कर के अभेद वाद का समर्थन करने वाला स्वतंत्र साहित्य मौजूद है जो अनुक्रम से जिनभद्रगणि तथा सिद्धसेन दिवाकर का रचा हुआ है। अन्य पादों का खण्डन कर के एक मात्र युगपद् वाद का अंतमें स्थापन करने वाला कोई स्वतंत्र प्रन्थ अगर है तो वह श्वेताम्बरीय परंपरा में नहीं पर दिगंबरीय परंपरा में है। (१०) ग्रन्थकार का तात्पर्य तथा उन की खोपज्ञ विचारणा उपाध्यायजी के द्वारा निर्दिष्ट विप्रतिपत्तिओं के पुरस्कर्ता के बारे में जो कुछ कहना था उसे समाप्त करने के बाद अंत में दो यातें कहना है । (१) उक्त तीन वादों के रहस्य को बतलाने के लिए उपाध्यायजी ने जिनभद्रगणि के किसी प्रन्थ को ले कर ज्ञानबिन्दु में उस की व्याख्या क्यों नहीं की और दिवाकर के सन्मतितर्कगत उक्त वाद वाले भाग को ले कर उस की व्याख्या क्यों की है। हमें इस पसंदगी का कारण यह जान पड़ता है कि उपाध्यायजी को तीनों वादों के रहस्य को अपनी दृष्टि से प्रकट करना अभिमत था फिर भी उन की तार्किक बुद्धि का अधिक झुकाव अवश्य अभेद वाद की ओर रहा है। ज्ञान बिन्दु में पहले भी जहाँ मति-श्रुत, और अवधि-मन:पर्याय के अभेद का प्रभ आया वहाँ उन्हों ने बड़ी खूबी से विषाकर के अभेद मत का समर्थन किया है। यह सूचित करता है कि उपाध्यायजी का मुख्य निजी तात्पर्य अभेद पक्ष का ही है। यहाँ यह भी ध्यान में रहे कि सन्मति के ज्ञानकाण्ड की गाथाओं की व्याख्या करते समय उपाध्यायजी ने कई जगह पूर्व व्याख्याकार अभयदेव के विवरण की समालोचना की है और उस में त्रुटियाँ बतला कर उस जगह खुद नये ढंग से व्याख्यान भी किया है। (२) [६१७४ ] दूसरी बात उपाध्यायजी की विशिष्ट सूझ से संबंध रखती है, वह यह कि ज्ञानबिन्दु के अन्त में उपाध्यायजी ने प्रस्तुस तीनों पादों का नयभेद की अपेक्षा से समन्वय किया है जैसा कि उन के पहले किसी को सूझा हुआ जान नहीं पड़ता। इस जगह इस समन्वय को बतलाने वाले पचों का तथा इस के बाद विए गए ज्ञानमहस्वसूचक पद्य का सार देने का लोभ हम संवरण कर नहीं सकते । सब से अंत में उपाध्यायजी ने अपनी प्रशस्ति दी है जिस में खुद अपना तथा - अपनी गुरु परंपरा का बही परिचय है जो उन की अन्य कृतियों की प्रशस्तियों में भी पाया जाता है। सूचित पों का सार इस प्रकार है १-जो लोग गतानुगतिक बुद्धिघाले होने के कारण प्राचीन शास्त्रों का अक्षरशः अर्थ करते हैं और नया तर्कसंगत भी अर्थ करने में या उसका स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं उन को लक्ष्य में रख कर उपाध्यायजी कहते हैं कि-शास्त्र के पुराने वाक्यों में से १ देखो, $ १०४,१०५,१०,११,१४८,१६५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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