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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - कुछ ज्ञातव्य जैनमन्तव्यों का कथन (३) निर्विकल्पक और सविकल्पक बोध का अनेकान्त । (४) निर्विकल्पक बोध मी शाब्द नहीं है किन्तु मानसिक है - ऐसा समर्थन । . (५) निर्विकल्पक बोध भी अवग्रह रूप नहीं किन्तु अपाय रूप है - ऐसा प्रति पादन । (१) [६९०] वेदान्तप्रक्रिया कहती है कि जय ब्रह्मविषयक निर्विकल्प बोध होता है तब वह ब्रह्म मात्र के अस्तित्व को तथा भिन्न जगत् के अभाव को सूचित करता है। साथ ही वेदान्तप्रक्रिया यह भी मानती है कि ऐसा निर्विकल्पक बोध सिर्फ ब्रह्मविषयक ही होता है अन्य किसी विषय में नहीं । उस का यह भी मत है कि निर्विकल्पक बोध हो जाने पर फिर कभी सविकल्पक बोध उत्पन्न ही नहीं होता । इन तीनों मन्तव्यों के विरुद्ध उपाध्यायजी जैन मन्तव्य बतलाते हुए कहते हैं कि निर्विकल्पक बोध का अर्थ है शुद्ध द्रव्य का उपयोग, जिस में किसी भी पर्याय के विचार की छाया तक न हो। अर्थात् जो ज्ञान समस्त पर्यायों के संबंध का असंभव विचार कर केवल द्रव्यको ही विषय करता है, नहीं कि चिन्त्यमान द्रव्य से भिन्न जगत् के अभाव को भी । वही ज्ञान निर्विकल्पक बोध है; इस को जैन परिभाषा में शुद्धद्रव्यनयादेश भी कहा जाता है । (२) ऐसा निर्विकल्पक बोध का अर्थ बतला कर उन्हों ने यह भी बतलाया है कि निर्विकल्पक बोध जैसे चेतन द्रव्य में प्रवृत्त हो सकता है वैसे ही घटादि जड़ द्रव्य में भी प्रवृत्त हो सकता है। यह नियम नहीं कि वह चेतनद्रव्यविषयक ही हो। विचारक, जिस जिस जड या चेतन द्रव्य में पर्यायों के संबंध का असंभव विचार कर केवल द्रव्य स्वरूप का ही प्रहण करेगा, उस उस जह-चेतन सभी द्रव्य में निर्विकल्पक बोध हो सकेगा। (३)[६९२] उपाध्यायजी ने यह भी स्पष्ट किया है कि ज्ञानस्वरूप आत्मा का स्वभाव ही ऐसा है कि जो एक मात्र निर्विकल्पक ज्ञानस्वरूप नहीं रहता। वह जब शुद्ध द्रव्य का विचार छोड़ कर पर्यायों के विचार की ओर झुकता है तब वह निर्विकल्पक ज्ञान के बाद भी पर्यायसापेक्ष सविकल्पक ज्ञान भी करता है । अत एव यह मानना ठीक नहीं कि निर्विकल्पक बोध के बाद सविकल्पक बोध का संभव ही नहीं। (४) वेदान्त दर्शन कहता है कि ब्रह्म का निर्विकल्पक बोध 'तत्त्वमसि' इत्यादि शब्द जन्य ही हैं। इस के विरुद्ध उपाध्यायजी कहते हैं [पृ० ३०, पं० २४ ] कि ऐसा निर्विकल्पक बोध पर्यायविनिर्मुक्तविचारसहकृत मनसे ही उत्पन्न होने के कारण मनोजन्य मानना चाहिए, नहीं कि शब्दजन्य । उन्हों ने अपने अभिमत मनोजन्यत्व का स्थापन करने के पक्ष में कुछ अनुकूल श्रुतियोंको भी उद्धृत किया है [६९४,९५] । (५) [६९३ ] सामान्य रूपसे जैनप्रक्रिया में प्रसिद्धि ऐसी है कि निर्विकल्पक बोध तो अवग्रह का नामान्तर है। ऐसी दशामें यह प्रश्न होता है कि तब उपाध्यायजी ने निर्विकल्पक बोध को मानसिक कैसे कहा ? क्यों कि अवग्रह विचारसहकृतमनोजन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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