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________________ ५४ ज्ञानविन्दुपरिचय - केवलज्ञान- दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा नहीं है; जब कि शुद्ध द्रव्योपयोगरूप निर्विकल्पक वोध विचार सहकृतमनोजन्य है । इस का उत्तर उन्हों ने यह दिया है कि जिस विचारसहकृतमनोजन्य शुद्धद्रव्योपयोग को हमने निर्विकल्पक कहा है वह ईहात्मकविचारजन्य अपायरूप है और नाम-जात्यादिकल्पना से रहित भी है। इन सब जैनाभिमत मन्तव्यों का स्पष्टीकरण कर के अन्त में उन्हों ने यही सूचित किया है कि सारी वेदान्तप्रक्रिया एक तरह से जैनसंमत शुद्धद्रव्यनयादेश की ही विचारसरणि है । फिर भी वेदान्तवाक्यजन्य ब्रह्ममात्र का साक्षात्कार ही केवल ज्ञान है ऐसा वेदान्तमन्तव्य तो किसी तरह भी जैनसंमत हो नहीं सकता । (९) केवलज्ञान - दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा [१०२ ] केवल ज्ञान की चर्चा का अंत करते हुए उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में केवल ज्ञान और केवल दर्शन के संबंध में तीन पक्षभेदों अर्थात् विप्रतिपत्तियों को न न्याय की परिभाषा में उपस्थित किया है, जो कि जैन परंपरा में प्राचीन समय से प्रचलित रहे हैं। वे तीन पक्ष इस प्रकार हैं ( १ ) केवल ज्ञान और केवल दर्शन दोनों उपयोग भिन्न हैं और वे एक साथ उत्पन्न न हो कर क्रमशः अर्थात् एक एक समय के अंतर से उत्पन्न होते रहते हैं । (२) उक्त दोनों उपयोग भिन्न तो हैं पर उन की उत्पत्ति क्रमिक न हो कर युगपत् अर्थात् एक ही साथ होती रहती है । (३) उक्त दोनों उपयोग वस्तुतः भिन्न नहीं हैं। उपयोग तो एक ही है पर उस के अपेक्षा विशेषकृत केवल ज्ञान और केवल दर्शन ऐसे दो नाम हैं । अत एवं नाम के सिवाय उपयोग में कोई भेद जैसी वस्तु नहीं है । उक्त तीन पक्षोंपर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना जरूरी है । वाचक उमास्वाति, जो विक्रम की तीसरी से पांचवी शताब्दी के बीच कभी हुए जान पडते हैं, उन के पूर्ववर्ति उपलब्ध जैन वाङ्मय को देखने से जान पडता है कि उस में सिर्फ एक ही पक्ष रहा है और वह केवल ज्ञान और केवल दर्शन के क्रमवर्तित्व का । हम सब से पहले उमास्वाति के 'तत्त्वार्थभाष्य' में ऐसा उल्लेख' पाते हैं जो स्पष्टरूपेण युगपत् पक्ष का ही बोध करा सकता है । यद्यपि तस्वार्थ भाष्यगत उक्त उल्लेख की व्याख्या करते हुए विक्रमीय ८ - ९ वीं सदी के विद्वान् वे० सिद्धसेनगणि ने उसे क्रमपरक ही बतलाया है और साथ ही अपनी तत्त्वार्थ भाष्य- व्याख्या में युगपत् तथा किया है; पर इस पर अधिक ऊहापोह करने से यह जान के पहले किसी ने तत्त्वार्थभाष्य की व्याख्या करते हुए उक्त उल्लेख को युगपत् परक मीं १ देखो, टिप्पण, पृ० ११४. पं० २५ से । २ " मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । भिज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानु समयमुपयोगो भवति ।" - तत्त्वार्थभा० १.३१ । ३ देखो, तत्वार्थ भाष्यढीका, पृ० १११-११२ ॥ Jain Education International अभेद पक्ष का खण्डन भी पडता है कि सिद्धसेन गणि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005269
Book TitleGyanbindu
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages350
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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