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५२ ज्ञानबिन्दुपरिचय - कुछ ज्ञातव्य जैनमन्तव्यों का कथन अंतरात्मा अर्थात् अन्य वस्तुओं के अहत्व-ममस्व की ओर से उदासीन हो कर उत्तरोत्तर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होने की ओर बढ़ने वाला कहता है, वह वेदान्तानुसारी अज्ञानगत दूसरी शक्ति के द्वारा व्यावहारिकसत्त्वप्रतीति करने वाले व्यक्ति के स्थान में है। क्यों कि जैनदर्शन संमत अंतरात्मा उसी तरह आत्मविषयक श्रवण-मनन-निदिध्यासन वाला होता है, जिस तरह वेदान्त संमत व्यावहारिकसवप्रतीति वाला ब्रह्म के श्रवण-मनन-निदिध्यासन में । जैनदर्शनसंमत परमात्मा जो तेरहवे गुणस्थान में वर्तमान होने के कारण द्रव्य मनोयोग वाला है वह वेदान्तसंमत अज्ञानगत तृतीयशक्तिजन्य प्रतिभासिकसत्त्वंप्रतीति वाले व्यक्ति के स्थान में है। क्यों कि वह अज्ञान से सर्वथा मुक्त होने पर भी दग्धरज्जुकल्प भवोपप्रहिकर्म के संबंध से पचन आदि में प्रवृत्ति करता है। जैसा कि प्रातिभासिकसवप्रतीति वाला व्यक्ति ब्रह्मसाक्षात्कार होने पर भी प्रपश्च का प्रतिभास मात्र करता है । जैन दर्शन, जिस को शैलेशी अवस्था प्राप्त आत्मा या मुक्त आत्मा कहता है वह वेदान्त संमत अज्ञानजन्य त्रिविध सृष्टि से पर अंतिमबोध वाले व्यक्ति के स्थान में है । क्यों कि उसे अब मन, वचन, काय का कोई विकल्पप्रसंग नहीं रहता, जैसा कि वेदान्तसंमत अंतिम ब्रह्मबोध वाले को प्रपश्च में किसी भी प्रकार की सत्त्वप्रतीति नहीं रहती।
(७) श्रुति और स्मृतियों का जैनमतानुकूल व्याख्यान [६८८] वेदान्तप्रक्रिया की समालोचना करते समय उपाध्यायजी ने वेदान्तसंमत वाक्यों में से ही जैनसंमत प्रक्रिया फलित करने का भी प्रयत्न किया है। उन्हों ने ऐसे अनेक श्रुति-स्मृति गत वाक्य उद्धृत किए हैं जो ब्रह्मज्ञान, एवं उस के द्वारा अज्ञान के नाशका, तथा अंत में ब्रह्मभाव प्राप्ति का वर्णन करते हैं। उन्हीं वाक्यों में से जैनप्रक्रिया फलित करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि ये सभी श्रुति-स्मृतियाँ जैनसंमत कर्म के व्यवधायकत्व का तथा क्षीणकर्मत्वरूप जैनसंमत ब्रह्मभाव का ही वर्णन करती हैं। भारतीय दार्शनिकों की यह परिपाटी रही है कि पहले अपने पक्ष के सयुक्तिक समर्थन के द्वारा प्रतिवादी के पक्ष का निरास करना और अंतमें संभव हो तो प्रतिवादी के मान्य शास्त्रवाक्यों में से ही अपने पक्षको फलित कर के बतलाना । उपाध्यायजी ने भी यही किया है।
(८) कुछ ज्ञातव्य जैनमन्तव्यों का कथन - ब्रह्मज्ञान की प्रक्रिया में आने वाले जुदे जुदे मुद्दों का निरास करते समय उपाण्याथजी ने उस उस स्थान में कुछ जैनदर्शनसंमत मुद्दों का भी स्पष्टीकरण किया है। कहीं तो वह स्पष्टीकरण उन्हों ने सिद्धसेन की सन्मतिगत गाथाओं के आधार से किया है और कहीं युक्ति और जैनशास्त्राभ्यास के बल से । जैन प्रक्रिया के अभ्यासियों के लिए ऐसे कुछ मन्तव्यों का निर्देश यहाँ कर देना जरूरी है।
(१) जैन दृष्टि से निर्विकल्पक बोध का अर्थ । (२) प्रम की तरह ब्रह्मभिन्न में भी निर्विकल्पक बोध का संभव ।
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